वचनामृतम् ८

संवत् १८८२ में पौष शुक्ल चतुर्थी को स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री वरताल में श्री लक्ष्मीनारायण के मन्दिर के आगे मंच पर विराजमान थे । उन्होंने सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनियों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
          
मुनिगण दुक्कड सरोद लेकर कीर्तन गा रहे थे । उस समय श्रीजी महाराज ने अर्न्तदृष्टि से ध्यान मुद्रायुक्त होकर थोडी देर तक दर्शन दिये इसके बाद नेत्र कमलों को खोलकर समस्त सभा के सम्मुख देखकर बोले कि - 'आप सब सुनिये, वार्ता कहते हैं । नेत्रों की वृत्ति अरूप है तब भी उस वृत्ति के मार्ग में कोई स्थूल पदार्थ आता है तब वह वृत्ति रुक जाती है । अतः वह वृत्ति स्थूल है तथा पृथ्वी तत्त्वप्रधान है । जब परमेश्वर का भक्त उस वृत्ति को परमेश्वर के स्वरूप में रखता है तब वह वृत्ति सबसे पहले पतली डोरी की भांति पीली दिखती है । जैसे मकडी अपनी लार को एक स्तंभ से दूसरे स्तंभ तक लम्बी करने के बाद कभी तो इस स्तंभ पर कभी तो उस स्तंभ पर चली जाती है और कभी दोनों स्तंभो के मध्य में बैठ जाती है । वैसे ही मकडी के स्थान पर जीव है और एक स्तंभ के स्थान पर भगवान की मूर्ति है और अन्य स्तंभ के स्थान पर अपना अन्तःकरण है तथा लार के ठिकाने पर वृत्ति है । उसके द्वारा ध्यान का करनेवाला जो योगी है, वह कभी तो भगवान के स्वरूप के साथ संलग्न हो जाता है और कभी अन्तःकरण में रहता है । कभी अन्तःकरण तथा भगवान के मध्य में बना रहता है । इस प्रकार का आचरण करनेवाली पृथ्वी तत्त्व प्रधान जो पीली वृत्ति है, वह जब जलतत्त्व प्रधान होती है तब श्वेत दिखायी देती है । जब वह अग्नि तत्त्व प्रधान होती है तब रक्त प्रतीत होती है । वायु तत्त्व प्रधान होने पर हरी प्रतीत होती है । आकाश तत्त्व प्रधान होने पर श्याम दिखती है और जब पंचभूतों की प्रधानता मिटकर यह वृत्ति निर्गुण हो जाती है, तब अतिशय प्रकाश युक्त दिखायी देती है और भगवान के स्वरूप के आकार जैसी हो जाती है । अतः इस तरह से जो भगवान के स्वरूप में वृत्ति रखता हो उसको तो अत्यन्त पवित्रतापूर्वक रहना चाहिये । जैसे कोई देवता की पूजा के लिये तत्पर हो और देव के समान पवित्र होकर देव की पूजा करे तो देव उसकी पूजा को अंगीकार करते हैं । वैसे ही परमेश्वर में वृत्ति रखनेवाले को भी सांख्यशास्त्र की रीति से अपने स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण नामक तीनों देहों से अपने स्वरूप को भिन्न समझकर तथा केवल आत्मा रूप होकर परमेश्वर के स्वरूप में वृत्ति रखनी चाहिये । इस तरह से वृत्ति रखते-रखते जब वह वृत्ति भगवान के स्वरूप में लीन हो जाय तब इसी को ध्यान करनेवाले योगी की निद्रा कहा गया है । परन्तु सुषुप्ति में लीन होने की अवस्था तो योगी की निद्रा नहीं हो सकती ।'

इति वचनामृतम् ।। ८ ।। ।। २०८।।