वचनामृतम् ७

संवत १८८२ में मार्गशीर्ष चर्तुदशी के दिन श्रीजी महाराज श्री वडताल स्थित श्रीलक्ष्मी नारायण के मन्दिर के आगे मंच पर विराजमान थे । उन्होंने सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष परमहंसो तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
          
हरिभक्त परस्पर भगवद् वार्ता कर रहे थे । उसमें ऐसा प्रसंग आया कि दैवी तथा आसुरी दो प्रकार के जीव हैं । उनमें दैवी जीव तो भगवान के भक्त होते हैं और आसुरी जीव होते हैं वे भगवान से विमुख ही रहते हैं ।
          
तब चिमनरावजी ने श्रीजी महाराज से प्रश्न पूछा कि - 'हे महाराज ! जो आसुरी जीव होते हैं वे कभी दैवी जीव हो सकते हैं या नहीं ?'
          
श्रीजी महाराज बोले कि - 'आसुरी जीव तो दैवी जीव हो ही नहीं सकते । क्योंकि वे जन्म से ही असुर भाव से युक्त होते हैं । यदि आसुरी जीव किसी प्रकार से सत्संग में आ गया हो तो भी उसका असुर भाव समाप्त नहीं होता । बाद में सत्संग में रहते हुये ही जब उसका देहान्त होता है तब वह ब्रह्म में लीन हो जाता है और पुनः बाहर निकलता है । इस तरह से अनेकों बार ब्रह्म में लीन होता है और बाहर निकलता है तब उसका असुर भाव नष्ट होता है परन्तु उसके बिना उसका असुर भाव नष्ट ही नहीं होता ।
          
शोभाराम शास्त्रीने प्रश्न पूछा कि - हे महाराज ! भगवान का अन्वयभाव और व्यतिरेक भाव कैसा है ?
          
श्रीजी महाराज बोले कि - 'अन्वय व्यतिरेक की वार्ता तो ऐसी है कि भगवान आधे तो माया में अन्वयात्मक हुये हैं और आधे अपने धाम में व्यतिरेक भाव से रहे हैं ऐसी बात नहीं है । वह तो भगवान का स्वरूप ही ऐसा है कि जो माया मे अन्वय होते हुये भी व्यतिरेक ही हैं । किन्तु भगवान को ऐसा भय नहीं है कि - यदि मैं माया में जाऊॅं तो अशुद्ध हो जाउॅं ।' किन्तु जब भगवान माया में आते हैं तब माया भी अक्षरधाम रूप हो जाती है । यदि वे चौबीस तत्त्वों में आते हैं तो चौबीस तत्त्व भी ब्रह्मरूप हो जाते हैं । वह श्रीमद् भागवत में कहा है कि -

''धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं पर धीमहि''
          
इस तरह से अनेक वचनों द्वारा भगवान के स्वरूप का प्रतिपादन किया है । जैसे वृक्ष का बीज हो उसमें भी आकाश होता है । उसके बाद उस बीज में से वृक्ष हुआ तब वृक्ष की डालों, पत्तियों फूलों और फलो आदि सब में आकाश अन्वय हुआ । जब वृक्ष को काटते हैं तब उसके साथ आकाश नहीं कटता । जब वृक्ष को जलाते हैं तब आकाश जलता नहीं है । उसी तरह से भगवान भी माया तथा माया के कार्य में अन्वयात्मक होते हुये भी आकाश की तरह से व्यतिरेक ही हैं । इस तरह से भगवान के स्वरूप में अन्वय व्यतिरेक भाव है ।'

इति वचनामृतम् ।। ७ ।। ।।२०७।।