संवत् १८८२ में पौष शुक्ल अष्टमी के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री वरताल स्थित श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर के आगे मंच पर गदृी तकिया डलवाकर विराजमान थे । उन्होंने सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये थे और उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनियों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
श्रीजी महाराजने समस्त मुनि मंडल से प्रश्न पूछा कि - 'राजसिक, तामसिक और सात्विक ये तीन प्रकार के जो मायिक सुख हैं, वे किस प्रकार तीनों अवस्थाओं में प्रतीत होते हैं ? वैसे ही भगवान सम्बन्धी जो निर्गुण सुख किस प्रकार प्रतीत होते हैं ?'
इस प्रश्न का उत्तर समस्त मुनिमंडल मिलकर करने लगा परन्तु उसका समाधान नहीं हुआ । तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'पृथ्वी आदि चार भूतों के बिना अकेले ही आकाश हो और उनमें जितने तारे रहते हैं उतने ही चन्द्रमा हों तथा उन सबका जितना प्रकाश है वैसा ही चिदाकाश का भी प्रकाश है । उस चिदाकाश में भगवान की मूर्ति विराजमान रहती है । उस मूर्ति में जब समाधि लग जाती है तब एक क्षणमात्र के लिये भी जो भगवान के स्वरूप में स्थिति लगी हो तो भजन करनेवाले को ऐसा प्रतीत होता है कि - हजारों वर्ष पर्यन्त मैंने समाधि का सुख भोगा है । इस तरह से भगवान के स्वरूप सम्बन्धी निर्गुण सुख प्रतीत होते हैं । जो मायिक सुख है उन्हें तो लम्बे समय तक भोगा हो तब भी वह अन्त में क्षण मात्र ही लगता है । अतः भगवान के स्वरूप सम्बन्धी निर्गुण सुख तो अखंड व अविनाशी हैं तथा मायिक सुख नाशवंत है ।'
इति वचनामृतम् ।। ९ ।। ।। २०९।।