वचनामृतम् ६

संवत १८८२ में मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी को स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री वडताल स्थित श्री लक्ष्मीनारायण के मन्दिर के आगे मंच पर विराजमान थे । उन्होंने सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये थे । कंठ में पुष्पहार पहने थे । पाग में पुष्पों के तुर्रे लटक रहे थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनि तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
          
चिमनरावजीने प्रश्न पूछा कि - 'हे महाराज ! जीव जब प्रथम प्रलयकाल में कारण शरीर युक्त होकर माया में लीन हुये थे और उसके पश्चात सृष्टिकाल में इन जीवनों को सूक्ष्म-सूक्ष्म देहों की प्राप्ति हुई तथा देव मनुष्य, पशु, पक्षी आदि रूपों में जो विचित्रता आयी तो वह कैसे हुई ? कर्म के द्वारा हुई या भगवान की इच्छा से हुई ? यदि जो कर्म द्वारा हुयी ऐसा कहा जाय तो जैन धर्म की सत्यता सिद्ध होगी यदि भगवान की इच्छा से हुई ऐसा कहा जाय तो जो भगवान के सम्बन्ध में विषमता तथा निर्दयता का भाव आयेगा । अतः वह जैसे हो वैसा कृपा करके कहें ।'
          
श्रीजी महाराज बोले कि - 'यह प्रश्न आपको पूछना नहीं आया क्योंकि जो - जो कारण शरीर है उसमें स्थित स्थूल-सूक्ष्म नामक दो शरीर बीजवृक्ष न्याय से रहे हैं । अतः इसे कारण शरीर कहते हैं । वह अविधात्मक है, अनादि है और संचितकर्म से युक्त है, जिस तरह से बीच और छिलके का नित्य सम्बन्ध है और भूमि तथा गन्ध का नित्य सम्बन्ध है वैसे ही जीव तथा कारण शरीर का नित्य सम्बन्ध है, जैसे पृथ्वी में रहनेवाला गन्ध का नित्य सम्बन्ध है वैसे ही जीव तथा कारण शरीर का सम्बन्ध है । जैसे पृथ्वी में रहनेवाले बीज वर्षा काल में जल का योग पाते ही उग जाते हैं वैसे ही माया के कारण शरीर युक्त रहे जीव उत्पत्तिकाल में फलप्रदाता परमेश्वर की दृष्टि को पाकर अपने अपने कर्मो के अनुसार नाना प्रकार के शरीरों को पाते हैं । नास्तिक जैसे जैन हैं वे तो केवल कर्म को ही कर्ता मानते हैं, परन्तु परमेश्वर को कर्मफल प्रदाता नहीं कहते उन नास्तिको का मत मिथ्या है । यदि कोई अकेले कालका ही बल बतावे तो वह भी प्रमाण नहीं है । अगर कोई अकेले कर्म का ही बल बतावे तो वह भी प्रमाण नहीं है, वह तो जिसकी जिस समय प्रधानता रहती है उस समय शास्त्रों में उसीको प्रधानता प्रदान की जाती है परन्तु सभी स्थानों पर उसी को नहीं लेना चाहिये । सबसे प्रथम इस विश्व की रचना हुयी तब सत्ययुग आया । उस सत्ययुग में समस्त मनुष्यों के संकल्प सत्य होते थे और सब लोग ब्राह्मण थे । वे मन में संकल्प करते थे तो उस संकल्प मात्र से ही पुत्र की उत्पत्ति हो जाती थी । सबके घर कल्पवृक्ष थे । जितने मनुष्य थे वे सभी परमेश्वर का भजन करते थे । जब त्रेतायुग आया तब मनुष्य के संकल्प सत्य नहीं रहे । उस समय सब लोग कल्पवृक्ष के नीचे जाते थे तब संकल्प सिद्ध होते थे तथा स्त्री का स्पर्श करने पर पुत्र की उत्पत्ति होती थी और जब द्वापरयुग आया तब स्त्री का अंग संग करने से पुत्र की प्राप्ति होती थी । इस तरह से सत्ययुग तथा त्रेतायुग में प्रचलित नहीं होती । वह तो प्रथम सत्ययुग और त्रेतायुग में थी वैसे ही जब शुभकाल बलवान होकर प्रवृत्त होता है तब वह जीव के अशुभ कर्मो की सामर्थ्य को न्यून कर देता है । जब अत्यन्त दुर्भिक्ष वर्ष आता है तब समस्त प्रजा को दुःख उठाना पडता है जब धमासान लडाई होती है तब लाखों आदमी एक साथ मरते हैं तो क्या सबका एक साथ शुभ कर्म समाप्त हो जाता है ?
          
वहॉं तो अशुभ काल का ही अतिशय सामार्थ्य है और उसी ने जीवों के शुभ कर्मो के बल को हटा दिया है । जब बलवान काल का वेग प्रवृत्त होता है तब कर्म का मेल नहीं रहता कर्म में सुख लिखा हो तो वह भी दुःख बन जाता है । यदि किसी के कर्म मे जीवित रहना लिखा होता है तब भी वह काल के वेग से मर जाता है । इस तरह से जब बलवान काल का वेग होता है तब उस काल से ही सब कुछ होता है । ऐसा शास्त्र में लिखा है । जब बहुत से मनुष्य भगवान के एकान्तिक भक्त होते हैं तब कलियुग में भी सत्ययुग होता है । उसी स्थान पर एकान्तिक भक्त के भगवान की भक्ति सम्बन्धी शुभ कर्मो का जोर होने की बात तो शास्त्रों में लिखि हो परन्तु काल का जोर बने रहने की बात न हो तो इस वार्ता को जाने बिना ही नास्तिक मतानुयायी केवल कर्म को ही सर्व कर्ता मानते हैं । किन्तु ऐसा नहीं जानते कि भगवान के जो एकान्तिक भक्त के कर्मो के सामर्थ्य को कहा है परन्तु विमुखजीवो कर्मो के ऐसे सामर्थ्य को नहीं कहा गया है । जब भगवान ऐसा संकल्प धारण करके प्रकट होते हैं कि - 'इस शरीर से तो पात्र-कुपात्र जिसे-जिसे मेरी मूर्ति का योग हो तो उन सबका कल्याण करना है ।' उस स्थिति में काल तथा कर्म का कोई सामर्थ्य नहीं रहता । तब तो अकेले परमेश्वर का ही सामर्थ्य रहता है । भगवान ने जब कृष्णावतार धारण किया तब महापापिनी पूतना ने भगवान को जहर पिलाया था फिर भी श्रीकृष्ण भगवान ने अपनी माता यशोदाजी के समान सदगति प्रदान की थी । दूसरे भी महापापी दैत्य थे जो भगवान को मारने आये थे उन्हें भी श्रीकृष्ण भगवानने परमपद प्रदान किया । अन्य जो जो भी लोग भावपूर्वक श्रीकृष्ण भगवान के सम्बन्ध में आये उन सबका कल्याण किया । इस स्थान पर तो परमेश्वर का ही बल अतिशय कहा गया है । किन्तु काल कर्म के सामर्थ्य की कोई बात नहीं कही गयी है । अतः जिस स्थान पर जैसा प्रकरण आवे उस स्थान पर वैसा समझना चाहिये ।'

इति वचनामृतम् ।। ६ ।। ।। २०६।।