संवत् १८८२ में कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री वरताल स्थित श्री लक्ष्मीनारायण मंदिर के उत्तरदिशा की ओर गोमतीजी के किनारे आम्रवृक्ष के नीचे पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने पीला तासता का चूडीदार पाजामा पहना था । लाल किनखाब की बगलबंडी पहनी थी । मस्तक पर जरीदार पल्ले की कुसुम्भी पाग बांधी थी तथा जरीदार पल्ले का कुसुम्भी शेला कन्धे पर डाला था, पाग में चम्पा के पुष्पों के हार विराजमान थे और कंठ में श्वेत पुष्पों के हार धारण किये हुए थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनि तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
तब श्रीजी महाराज ने कहा कि - 'कुछ प्रश्नोत्तर करिये ।' तब बुवा गांव के पटेल कानदासजी ने हाथ जोडकर पूछा कि - 'हे महाराज ! भगवान किस प्रकार से प्रसन्न होते हैं ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'भगवान का द्रोह न किया जाय तो वे प्रसन्न हो जाते हैं । तब आप कहेंगे कि द्रोह किया है ? तो समस्त जगत के कर्ता हर्ता भगवान हैं और उन्हें कर्ता-हर्ता न समझकर विश्व का कर्ता-हर्ता काल माया और स्वभाव को समझा जाय तो वह भगवान का द्रोह है । क्योंकि भगवान ही सबके कर्ता-हर्ता हैं । उनका त्याग करके केवल काल, कर्म, स्वभाव और माया को जगत का कर्ता-हर्ता कहते हैं अतः वह भगवान का अत्यन्त द्रोह है । यहां एक दृष्टांत है कि जिस तरह से आप गांव के पटेल हैं और यदि कोई आपकी मुखियागीरी न रहने देतो वह आपका द्रोही कहलायेगा । जैसे चक्रवर्ती राजा की आज्ञा का उल्लंघन करके किसी अन्य का जो राजा न हो उसका आदेश माना जाय तो वह पुरुष राजा का द्रोही कहलायेगा । यदि कोई इस तरह से पत्र लिख-लिखकर भेजे कि - 'हमारे राजा नाक-कान या हाथ पैर बिना के हैं ।' इस तरह से राजा के सम्पूर्ण रुप को खंडित करके वर्णन करनेवाला राजा का द्रोही कहलायेगा । वैसे ही भगवान हैं जो कर चरणादि समग्र अंगों से परिपूर्ण हैं और उनका कोई अंग लेशमात्र भी खंडित नहीं है, वे सदा मूर्तिमान हैं, यदि उन्हें अकर्ता, अरुप कहा जाय और उनकी अवहेलना करके अन्य कालादि को कर्ता कहा जाय तो इसे ही भगवान का द्रोह कहा जाएगा । इस प्रकार का जो भगवान का द्रोह नहीं करता उसने भगवान की सम्पूर्ण पूजा की है, इसके बिना तो यदि चन्दन पुष्पादि द्वारा पूजा करता है तब भी वह भगवान का द्रोही है । अतः भगवान को जगत का कर्ता-हर्ता मानें तथा मूर्तिमान जानें उन पर भगवान प्रसन्न होते हैं ।'
वेदों में नारायण ने अपने मुख से भगवान के स्वरुपों का विभिन्न प्रकार से वर्णन किया है परन्तु वह किसी की समझ में नहीं आता । सांख्यशास्त्र में चौबीस तत्व बताये गये हैं और पच्चीसवें तत्त्व को भगवान का स्वरुप बताया गया है । इस सांख्य के आचार्य कपिल मुनि ने ऐसा विचार किया कि - 'जीव स्थूल सूक्ष्म और कारण में एक भाव से रहता है । जीव इससे अलग नहीं रह सकता । ईश्वर भी विराट सूत्रात्मा तथा अव्याकृत नामक उपाधि में एक भाव से रहता है उसके बिना वह नहीं रह सकता । अतः सांख्य शास्त्र ने चौबीस तत्त्वों में जीव तथा ईश्वर को एकसाथ गिना है और पच्चीसवें तत्त्व को परमात्मा बताया है ।'
योगशास्त्र के आचार्य हिरण्यगर्भ ऋषि ने चौबीस तत्त्व बताये हैं और पच्चीसवें तत्त्व को जीव बताया है और पच्चीसर्वां ईश्वर को भी बताया है इसी तरह से सांख्याशास्त्र और योगशास्त्र में भगवान का स्वरुप बताया है तब भी साक्षात्कार भगवान के स्वरुप का ज्ञान नहीं हुआ । अनुमान के अनुसार से हुआ कि - 'सांख्यशास्त्र के मतानुसार चौबीस तत्त्वों से परे जो वस्तु है वह सत्य है और योगशास्त्र का मत है कि चौबीस तत्त्वों से परे जीव एवं ईश्वर हैं और उनसे परे परमात्मा हैंजो सत्य हैं । इस तरह से परमात्मा के स्वरुप का अनुमान दोनों शास्त्रों के अनुमानानुसार ज्ञान हुआ परन्तु वे भगवान काले हैं या पीले हैं ? लम्बे हैं कि ठिगने? साकार है या निराकार ? ऐसा कोई ज्ञान नहीं हुआ । स्वयं वासुदेव भगवान ने पंचरात्र नामक तंत्र का निर्माण किया जिसमें यह प्रतिपादित किया कि - श्रीकृष्ण पुरुषोत्तम भगवान अपने अक्षरधाम में सदा दिव्य साकार और मूर्तिमान रहते हैं । वे ही भगवान श्वेतद्वीप वासी अनन्त निरन्नमुक्तों को पांच बार अपने दर्शन देते हैं तथा बैकुंठ में वे ही भगवान चतुर्भुज मूर्ति द्वारा लक्ष्मीजी सहित हैं और वे शंख, चक्र, गदा, पद्म को धारण करते हैं । विष्वकसेनादि पार्षद उनकी सेवा करते हैं । वे ही भगवान पूजनीय हैं, भजने योग्य हैं तथा प्राप्त करने योग्य हैं । वे ही भगवान रामकृष्णादि अवतारों को धारण करते हैं तथा वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न एवं अनिरुद्ध चतुर्व्यूह रुप से रहते हैं ।' इस तरह से साकार मूर्ति का प्रतिपादन किया है, उसके बाद नारदजी ने उसी पंचरात्र तन्त्र का निर्माण किया तब वह 'नारद पंचरात्र' कहलाया । उसमें भगवान के स्वरुप का प्रतिपादन इस प्रकार किया कि किसी प्रकार का संशय नहीं रहा । उसी तरह से शिवजी ने 'पाशुपत शास्त्र' का निर्माण किया उसमें भी अष्टभुज, चतुर्भुज रुप से श्री नारायण के स्वरुप का वर्णन किया है । अतः श्रीमद् भागवत में कहा है कि -
''नारायणपरा वेदा देवा नारायणाङ्गजाः ।
नारायणपरा लोका नारायणपरा मखाः ।।
नारायणपरो योगो नारायणपरं तपः ।
नारायणपरं ज्ञानं नारायणपरा गतिः ।।''
तथा
''वासुदेवपरा वेदा वासुदेवपरा मखाः ।
वासुदेवपरा योगा वासुदेवपाराः क्रियाः ।।
वासुदेव परं ज्ञानं वासुदेवपरं तपः ।
वासुदेवपरो धर्मो वासुदेवपरा गतिः ।।''
इस तरह से शास्त्रों द्वारा श्रीकृष्ण नारायण वासुदेव के स्वरुप का प्रतिपादन किया है । इन शास्त्रों द्वारा जो भगवान के स्वरुप को समझते हैं वही पूरे ज्ञानी होते हैं । जैसे दूध नेत्रों से देखने पर सफेद दिखायी देता है नाक से सूंघने पर सुगन्धमय लगता है । उंगली से छूने पर ठंडा या गरम मालूम होता है और जिह्वा से चखने पर स्वादिष्ट प्रतीत होता है । जबकि एक ही इन्द्रिय द्वारा दूध के स्वरुप का सम्पूर्ण रुप से ज्ञान नहीं होता परन्तु समस्त इन्द्रियों द्वारा पता लगानेपर ही उसकीपूर्ण जानकारी होती है । वैसे ही वेदादि पांच शास्त्रों द्वारा जो भगवान के स्वरुप को समझ लेता है तब ही उसे भगवान का सम्पूर्ण ज्ञान होता है । ऐसा समझने से ही भगवान प्रसन्न होते हैं परन्तु भगवान को प्रसन्न करने का कोई अन्य उपाय नहीं है, अतः जो इस तरह से समझा है वही पूरा ज्ञानी कहलाता है और भगवान भी उस पर अतिशय प्रसन्न होते हैं ।
इति वचनामृतम् ।।२।। ।। २०२ ।।