वचनामृतम् १

।। श्री स्वामिनारायणो विजयतेतराम ।।

।। श्री वरताल वचनामृतम् ।।
          
संवत् १८८२ में कार्तिक शुक्ल एकादशी को स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री वरताल स्थित श्री लक्ष्मीनारायण के मन्दिर से उत्तर की ओर गोमतीजी के तट पर आम्रकुंज में सिंहासन के ऊपर गदी-तकिया डलवाकर विराजमान थे । उन्होंने श्वेत चूडीदार पाजामा और सफेद अंगरखा पहना था । गाढे रंग का दुपट्टा कमर में बांधा था और मस्तक पर सुनहरे तारों के पल्लेवाला कुसुम्भी दुपट्टा बांधा था । उनके कन्धे पर जरी के पल्लेवाला कुसुम्भी दुपट्टा पडा था । कंठ में गुजाब के पुष्पों के हार थे । मस्तक पर गुलाब के फूलों के तुर्रे थे और भुजाओं में गुलाब के गजरे और बाजूबन्द बंधे थे । ऐसी शोभा को धारण करते हुए वे उत्तर की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनियों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
          
बडौदावासी शोभाराम शास्त्री ने श्रीजी महाराज से प्रश्न पूछा कि - 'हे महाराज ! मुमुक्षु जीव निर्विकल्प समाधि को प्राप्त होने पर गुणातीत तथा भगवान का एकान्तिक भक्त हो, तब जिसे निर्विकल्प समाधि न होती हो तो उसकी क्या गति होती है ?'
          
तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'प्राण का निरोध होने पर भी निर्विकल्प समाधि लगे ऐसी बात नहीं है । निर्विकल्प समाधि की तो दूसरी रीति है उसे कहते हैं सुनिये, श्रीमद् भागवत में कहा है कि -

''अत्र सर्गो विसर्गश्च स्थानं पोषणमूतयः ।
मन्वन्तरेशानुकथा निरोधो मुक्तिराश्रयः ।।''
          
इस श्लोक का यह अर्थ है कि - 'विश्व के सर्ग-विर्सगादि जो नव लक्षणों द्वारा ज्ञात आश्रय रुप श्रीकृष्ण भगवान के स्वरुप में जिस मुमुक्षु की अचल मति हो गयी हो, जैसे एक बार आम के वृक्ष की अच्छी तरह से जानकारी होने के बाद काम, क्रोध, तथा लोभ के व्याप्त होने के बाद आम के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का संशय नहीं रहता कि - 'यह आम का वृक्ष होगा या नहीं' वैसे ही जिसे प्रत्यक्ष श्रीकृष्ण भगवान के स्वरुप का दृढ निश्चय हो गया हो और उसमें किसी भी प्रकार का कुतर्क न हो तो उस पुरुष के प्राण लीन न होने पर भी निर्विकल्प समाधि रहती है और प्राणों के लीन होने पर भी निर्विकल्प समाधि रहती है । जिसे भगवान के स्वरुप में संकल्प विकल्प करना हो कि 'ब्रह्मपुर श्वेतद्वीप तथा बैकुंठ में भगवान का स्वरुप कैसा होगा तथा उस स्वरुप का दर्शन कब होगा परन्तु प्रकट रुप से भगवान के मिलने पर उन्हें ही सबका कारण मानकर उससे स्वयं को कृतार्थ नहीं माने तथा ऐसे पुरुष को यदि दैवइच्छा से समाधि होती है और फिर भी संकल्प-विकल्प नहीं मिटते और समाधि में जो कुछ दिखायी दे उससे नया-नया देखने की इच्छा हो किन्तु मन का विकल्प मिटे नहीं और समाधि हो, तब भी सविकल्प रहे तथा समाधि न हो तब भी सविकल्प ही रहे यदि ऐसी स्थिति हो तो वह गुणातीत एकान्तिक भक्त नहीं कहलाता । जिसे भगवान के स्वरुप का दृढ निश्चय हो और उसे समाधि हो या न हो, तब भी उसे सदा निर्विकल्प समाधि की स्थिति रहती है ।'
          
दीनानाथ भट्ट ने प्रश्न पूछा कि - 'मन में होनेवाले संकल्प-विकल्पों को टालने का उपाय करने पर भी यदि मन को नहीं जीता जा सकता हो तो उसकी कैसे गति होती है ?'
          
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जब कौरव और पांडवों ने युद्ध प्रारम्भ किया तब कौरवों और पांडवों ने यह विचार किया कि हमें ऐसे स्थान पर युद्ध करना चाहिए जहां किसीके मरने पर उसके जीव का कल्याण हो । ऐसा विचार करके कुरुक्षेत्र में युद्ध किया । युद्ध में जो जीते उनका भी भला हुआ और जो संग्राम में मरे उन्हें देवलोक की प्राप्ति हुयी और राज्य से अधिक सुख मिला । इसी तरह से जो मन के साथ संघर्ष करता है और उसे जीत लेता है तो उसकी निर्विकल्प स्थिति होती है और वह भगवान का एकान्तिक भक्त हो जाता है यदि मन के आगे उसकी हार हो जाती है तब वह योगभ्रष्ट होता है । बाद में एक या दो जन्म में अथवा अनेक जन्मों उसने जो प्रयास किया है वह निष्फल नहीं जाता । अतः बुद्धिमान व्यक्ति को तो अपने कल्याण के लिए मन के साथ बैर बांधना चाहिए । तब वह मन को जीतेगा तब भी अच्छा है और यदि मन से उसकी हार हो गयी तब भी योगभ्रष्ट होगा । उसमें अन्ततः अच्छा ही होता है । अतः जो कल्याण की इच्छा करते हैं उन्हें तो मन के साथ अवश्य बैर बांधना चाहिए ।'          

इति वचनामृतम् ।।१।। ।। २०१ ।।