वचनामृतम् ३

संवत् १८८२ में कार्तिक कृष्ण एकादशी के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री वरताल स्थित श्री लक्ष्मीनारायण के मन्दिर में सिंहासन पर विराजमान थे । उन्होंने समस्त श्वेत वस्त्र धारण किये थे । कंठ में गुलाब के पुष्पों को धारण किया था और मस्तक पर पाग में तुर्रे विराजमान थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनिमंडल तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
          
श्रीजी महाराज बोले कि - 'अपने उद्धर सम्प्रदाय में उसे ही एकान्तिक भक्त कहा जाता है जिसमें ज्ञान, वैराग्य, धर्म और भक्ति ये चार बातें हों, और अपने सम्प्रदाय में अग्रगण्य करने लायक होता है । यदि वे चारों बातें सम्पूर्ण न हो और एक ही मुख्य रुप से हो तो और उस एक में ही तीनों अन्य बातों का समावेश होजाय ऐसी कौन सी बात इन चारों में श्रेष्ठ है ? गोपालानन्द स्वामी तथा मुक्तानन्द स्वामी ने कहा - 'हे महाराज ! ऐसा एकमात्र धर्म ही है । जिसमें धर्म हो उनमें तीनों बातें स्वयं आ जाती हैं ।'
          
तत्पश्चात् श्रीजी महाराज बोले कि - 'धर्म तो कितने ही विमुख मनुष्यों में भी होता है तो क्या सत्संग में उन्हें भी अग्रगण्य मानेंगे ? यह बात सुनकर कोई उत्तर न दे सका । तब श्रीजी महाराज बोले कि - जो माहात्म्य सहित भगवान की भक्ति करता हो और उसमें आत्मनिष्ठा, धर्म और वैराग्य सामान्य रुप से हो तब भी वह कभी धर्मच्युत नहीं होता । क्योंकि जो भगवान के माहात्म्य को जानता है तो वह यह विचार करता है कि 'भगवान की आज्ञा में ब्रह्मादि समग्र देव रहे हैं तो उन भगवान की आज्ञा का लोप हम कैसे करें यह समझकर भगवान के नियम में निरन्तर रहता है ।'
          
शुकमुनि ने पूछा कि - 'जब माहात्म्य सहित एकमात्र भक्ति द्वारा ही सभी बातें सम्पूर्ण हो जाती हैं तब केवल भक्ति का ही प्रतिपादन क्यों नहीं किया गया और ये चार बातें ही क्यों कही गयी हैं ?'
          
श्रीजी महाराज बोले कि - 'यदि भगवान में अतिशय भक्ति हो तो केवल एक भक्ति में ही तीनों बातें आ जाती हैं और यदि सामान्य भक्ति हो तो एक में तीनों नहीं आती । अतः जिसमें चार बातों सहित भक्ति हो उस एकान्तिक भक्त कहते हैं । ऐसा कहा गया है, ऐसी असाधारण भक्ति तो पृथुराजा करते थे । जब भगवान ने उनसे वरदान मांगने को कहा तो उन्होंने भगवान की कथा सुनने के लिए दश हजार कान मांगे परन्तु अन्य कुछ नहीं मागा । जिन गोपियों को रासक्रीडा में नहीं जाने दिया गया तो वे देहत्याग करके श्रीकृष्ण के पास चली गयीं । ऐसी असाधारण भक्ति हो तो ज्ञानादि तीनों एक भक्ति में आ जाती है ।
          
तब ब्रह्मानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'ऐसी असाधारण भक्ति किस उपास से आती है ?' तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'महापुरुष की सेवा से आती है । ऐसे महापुरुष भी चार प्रकार के हैं । इनमें पहले दीपक के समान, दूसरे मशाल के समान तीसरे बिजली के समान और चौथे बडवानल अग्नि के समान । इसमें जो दीपक के समान होते हैं वे तो विषयरुप वायु से बुझ जाते हैं । जो मशाल जैसे होते हैं वे भी उनसे अधिक विषयरूपी वायु लगने से बुझ जाते हैं । जो बिजली जैसे होते हैं वे तो मायारुपी वर्षा के पानी से भी नहीं बुझ पाते । जो बडनावल अग्नि के समान होते हैं उनकी स्थिति अलग होती है । वह तो जैसे बडवानल समुद्र में रहने पर भी समुद्रय के जल से बुझानेपर भी नहीं बुझता और समुद्र के जल को पीकर मूल के द्वार सेनिकाल देता है । वह पानी मीठा होता है उसे लाकर मेघ संसार में वर्षा करते हैं। उससे अनेक प्रकार के रस होते हैं । वैसे ही जो महापुरुष होते हैं वे समुद्र जैसे खारे जीव को भी मीठा कर देते हैं । इस प्रकार चार तरह के जो महापुरुष कहे गये हैं उनमें बिजली के अग्नि जैसे तथा समुद्र के अग्नि जैसे बडे पुरुषों की सेवा अपने-अपने धर्म का पालन करते हुए मन, कर्म और और वचन द्वारा किया जा तो जीव के हृदय में माहात्म्य सहित भक्ति उत्पन्न होती है । वह तो बिजली की अग्नि के समान साधनवाले भगवान के एकान्तिक साधु हैं और बडवानल अग्नि के समान साधन दशा वाले भगवान के एकान्तिक साधु हैं,ऐसा जानना चाहिए ।'
                       
इति वचनामृतम् ।।३।।   ।। २०३ ।।