वचनामृतम् ७

संवत् १८ की श्रावण कृष्ण एकादशी को रात्रि समय श्रीजी महाराज श्री सारंगपुर ग्राम स्थित जीवा खाचर के राजभवन में उत्तर द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे । वे सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनियों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
         
श्रीजी महाराज ने श्रीमद भागवत पुराण के प्रथम स्कन्ध की कथा का वाचन प्रारम्भ कराया था । उसमें ऐसी वार्ता आई कि 'जहाँ मनोमय चक्र की धारा कुंठित हो, वहाँ नैमिषारण्य समझना चाहिए ।'
         
इस बात को सुनकर मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि - हे महाराज ! यह मनोमय चक्र क्या है ? तथा इसकी धारा किसे समझना चाहिए ?
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'मनोमय चक्र तो मन को समझना चाहिए। और इसकी धारा दस इन्द्रियाँ हैं । इस इन्द्रिय रुप मन की धारा जो है वह जिस स्थान पर घिस जाती है उसे नैमिषारण्य समझना चाहिए । उस स्थान पर जो कोई जप, तप, व्रत, ध्यान पूजा आदि सुकृत कर्मो को प्रारम्भ करता है, तो दिन प्रतिदिन उसकी वृद्धि होती है । ऐसे नैमिषारण्य क्षेत्र के जिस स्थल पर भगवान के एकान्तिक साधु रहते हों उसे जान लेना चाहिए और मनोमय चक्र की इन्द्रिय रुपी धार खत्म हो जाय तो शब्द, स्पर्श, रुप, रस और गंध नामक पंच विषयों में कही हुई प्रीति रहती नहीं है । जब कोई रुपवती स्त्री दीख पडे अथवा वस्त्र अलंकारादि अत्यन्त सुन्दर पदार्थ दिखाई दे तब देखनेवाले के मन में अत्यन्त अभाव आ जाता है । परन्तु उसमें इन्द्रियों की वृत्ति नहीं ठहरती । जैसे अति तीक्ष्ण धार वाले बाण को जिस पदार्थ को लक्ष्य करके मारा जाय तो वह उसे वेधकर अन्दर प्रवेश कर जाता है और पुनः निकाले जाने पर भी नहीं निकलता है । यदि उस बाण में से उसका फलक निकाल लिया जाय तो वह थोथा रह जाता है और उसका भीत पर घाव किया जाय तो वहाँ से उखड कर नीचे गिर जाता है । परन्तु फलक सहित भीत पर पूर्ववत नहीं चिपकता । वैसे ही मनोमय चक्र की धार रुपी जो इन्द्रियाँ कुंठित हो जाती हैं तब चाहे कितना ही श्रेष्ठ विषय हो उसमें इन्द्रियों की वृत्ति नहीं जमती और थोथी इन्द्रियों की तरह वृत्ति पीछे हट जाती है । जब ऐसी वृत्ति दिखे तो समझना चाहिए कि मनोमय चक्र की धार कुंठित हो गई है । ऐसे सन्त समागम रुप नैमिषारण्य क्षेत्र जहाँ दिखायी पडे वहाँ कल्याण की इच्छा करनी चाहिए और अत्यन्त दृढ मन करके वहाँ  रहना चाहिए ।    

इति वचनामृतम् ।। ७ ।। ८५ ।।