संवत् १८ की श्रावण कृष्ण द्वादशी के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री सारंगपुर स्थित जीवाखाचर के दरबार में उत्तर द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे । वे श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनियों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
चैतन्यानन्द स्वामी ने पूछा कि - हे महाराज ! ईर्ष्या का क्या रुप है?
श्रीजी महाराज बोले कि - जिसके हृदय में अभिमान होता है उसमें से ईर्ष्या उत्पन्न होती है । क्रोध मत्सर तथा असूया भी अभिमान में से उत्पन्न होते हैं । ईर्ष्या का एक रुप यह भी है कि 'अपने से जो बडा हो तो भी जब उसका सम्मान हो तो उसे नहीं देख सकता' ऐसा जिसका स्वभाव हो तो उसे ऐसा समझना चाहिए कि इसके हृदय में ईर्ष्या है । किन्तु यथार्थ ईर्ष्या करनेवाला व्यक्ति तो किसी की भी बडाई को देख नहीं सकता ।'
इति वचनामृतम् ।। ८ ।। ८६ ।।