संवत् १८ की श्रावण कृष्ण दशमी के दिन श्रीजी महाराज श्री सारंगपुर स्थित जीवाखाचर के दरबार में उत्तर द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनियों तथा देश-विदेश के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
नित्यानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'एक एक अवस्थाओं में अन्य दो-दो अवस्थाएँ कैसे रही हैं ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'यह जीवात्मा जिसमें रहकर विषय भोगों को भोगती है, उसे अवस्था कहते हैं । वह अवस्था जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीन प्रकार की होती है । उसमें जो जाग्रत अवस्था है वह वैराज पुरुष की स्थिति अवस्था का कार्य है । वह सत्व गुणात्मक है और नेत्र स्थान में रही है । ऐसी जो जागृत अवस्था में विश्वाभिमानी नामक जो यह जीवात्मा है वह स्थूल देह के अभिमान सहित दस इन्द्रियों और चार अन्तःकरणों द्वारा विवेकपूर्वक यथार्थ रुप से अपने पूर्व कर्मो के अनुसार बाह्य शब्दादि पंच विषयों के भोगों को भोगती है । उसे सत्वगुण प्रधान ऐसी जागृत अवस्था कहते हैं । उस जाग्रत अवस्था में जो यह जीवात्मा भ्रान्ति द्वारा यथार्थ रुप से बाह्य विषय भोगों को भोगता है उसे जाग्रतावस्था में स्वप्न कहते हैं । वह जीवात्मा जाग्रत अवस्था में शोक तथा श्रमादि से विवेक रहित होकर जब बाह्य विषयभोगों को भोगती है तब उसे जाग्रत अवस्था में स्वप्न कहते हैं । वह जीवात्मा जाग्रत अवस्था में शोक तथा श्रमादि से विवेक रहित होकर जब बाह्य विषयों को भोगती है तब उसे जाग्रत अवस्था में सुषुप्ति कहते हैं । वह स्वप्नावस्था है । वह हिरण्यगर्भ की उत्पत्ति अवस्था का कार्य है । वह रजो गुणात्मक है और कंठ स्थान में रही है । ऐसी अवस्था में तैजसाभिमानी नामक जीवात्मा सूक्ष्म देह के अभिमान सहित रहते हुए इन्द्रियों तथा अन्तःकरण द्वारा पूर्वकर्मो के अनुसार दुःख-सुखरुपी वासनामय भोगों को भोगती है । उसे रजोगुण प्रधान अवस्था कहते हैं । इस स्वप्नावस्था में यह जीवात्मा जब जाग्रतावस्था की तरह ही विवेकपूर्वक जानते हुए वासनामय भोगों को भोगती है तब इसे स्वप्नावस्था में जाग्रत अवस्था कहते हैं । उस स्वप्नावस्था में प्रतीत जो वासनामय भोगों को भोगती हुई भी वह जीवात्मा यदि जड रुप के कारण न जाने तो इसे स्वप्नावस्था में सुषुप्ति कहते हैं । सुषुप्ति अवस्था ईश्वर की प्रलयावस्था का कार्य है । वह तमो गुणात्मक है और हृदय में रहती है । ऐसी जीव की सुषुप्ति अवस्था आती है तब इन्द्रियों और अन्तःकरण की वृत्तियाँ विषयभोग की वासना तथा ज्ञान एवं कर्तव्य रुपी समस्त कारण देह में विलीन हो जाते हैं । अतः देह का अभिमानी प्राज्ञा नामक जीवात्मा प्रधान पुरुष रुप सगुण ब्रह्म का अल्प सुख में अतिशय लीन हो जाता है । उसे तमो गुण प्रधान सुषुप्ति अवस्था कहते है । उस सुषुप्ति अवस्था में कर्म संस्कार द्वारा जिस कर्तावृत्ति की उत्पत्ति होती है उसे सुषुप्ति में स्वप्न कहते है । जाग्रत एवं स्वप्नावस्था में उत्पन्न होनेवाली पीडा के ताप से पुनः सुषुप्ति अवस्था के सुख में प्रवेश करती हुई कर्तावृत्ति के प्रतिलोभ का जो ज्ञान है उसे सुषुप्ति में जाग्रत अवस्था में उत्पन्न होनेवाली पीडा के ताप से पुनः सुषुप्ति अवस्था के सुख में प्रवेश करती हुई कर्तावृत्ति के प्रतिलोभ का जो ज्ञान है उसे सुषुप्ति में जाग्रत अवस्था कहते हैं । इस तरह से एक-एक अवस्था में अन्य दो-दो अवस्थाएँ रही है । इन अवस्थाओं के भेद का ज्ञान जिसके द्वारा होता है तथा उस अवस्था में इस जीव को कर्मानुसार जो फल प्रदान है उसे तुर्य पद कहते हैं, अन्तर्यामी, दृष्टा, ब्रह्म और परब्रह्म कहते हैं ।
नित्यानन्द स्वामीने प्रश्न पूछा कि - 'परा, पश्यंती, मध्यमा तथा वैखरी, जो चार वाणियाँ हैं, उन्हे किस प्रकार समझा जाय ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'यह वार्ता तो बहुत बडी है और अत्यन्त सूक्ष्म भी है । श्रीमद् भागवत के एकादश स्कन्ध में श्रीकृष्ण भगवान ने उद्धवजी से यह वार्ता कही है । उसे संक्षेप में कहता हूँ । उसे सुनिए - प्रथम उत्पत्ति काल में पुरुषोत्तम भगवान ने वैराजपुरुष के मस्तक में स्थित सहस्त्रदल वाले कमल में प्रवेश करके अक्षर ब्रह्मात्मक नाद किया । उसके बाद वह नाद सुषुम्ना मार्ग द्वारा विराट पुरुष ने नाभिकन्द में व्याप्त होकर महाप्राण सहित वहाँ से ऊँचा चला गया । इससे उन विराट पुरुष का अधोमुख नाभिपथ उर्ध्वमुख हो गया । इस तरह से विराट पुरुष के नाभिकन्द में जो नाद हुआ उसे परावाणी कहते हैं। उस परावाणी को स्वयं भगवान ने वेद की उत्पत्ति के लिये बीजरुप से प्रकाशित किया है । वह तेज का प्रवाह रुप और अर्धमात्रा रुप है । उसके बाद वही परावाणी वहाँ से विराट के हृदयाकाश में पहुँचकर पश्यन्ती नामवाली हुई वहाँ से कंठ प्रदेश में पहुँचकर मध्यमा नाम से प्रख्यात हुई । वहाँ से विराट के मुख में पहुँचकर मध्यमा नाम से प्रख्यात हुई । वहाँ से विराट के मुख में पहुँचकर वैखरी संज्ञा को प्राप्त हुई तथा अकार, उकार तथा मकार नामक तीन वर्णो का रुप ग्रहण करके प्रणव रुप हो गई । बाद में बावन अक्षरों का स्वरुप ग्रहण करके उसने चार वेदों का रुप धारण कर लिया । इस तरह विराट पुरुष में परा पश्यन्ती, मध्यमा तथा वैखरी नामक चार वाणियाँ समझनी चाहिए ।'
'अब इस जीव के देह में भी चार वाणियाँ विद्यमान है । उन्हें सुनिये, वे ही पुरुषोत्तम भगवान उस जीव में अन्तर्यामी रुप से रहे हैं । जीव की तीनों अवस्थाओं में स्वतन्त्र होकर अनुस्यूत है । ऐसे भगवान ही जीव के कल्याण के लिए पृथ्वी पर अवतार धारण करते हैं । तब यह जीव उन भगवान के स्वरुप तथा उनके धाम गुणों और ऐश्वर्यो का प्रतिपादन करता है । उनके चरित्रों का वर्णन करता है । आत्मा अनात्मा का विवेक प्रस्तुत करता है तथा जीव ईश्वर माया ब्रह्म और पर ब्रह्म के भेदों को पृथक-पृथक करके दिखलाता है । ऐसी वाणी को परावाणी कहते हैं जो मायिक पदार्थो और विषयों को विवेकपूर्वक यथार्थ रुप से कह दिखाती है उसे वैखरी वाणी कहते है । पदार्थो और विषयों को भ्रान्ति सहित जो यथार्थ रुप से कह दिखाता है उसे मध्यमा वाणी कहते हैं । जो इन पदार्थो और विषयों को उल्टा पुल्टा करके दिखाती है किन्तु कुछ समझ में नहीं आता है उसे पश्यन्ती वाणी कहते हैं । इस प्रकार से जीव को जाग्रत अवस्था में इन चारों वाणियों के रुप समझ में आ जाते हैं । स्वप्नावस्था तथा सुषुप्ति अवस्था में तो कोई समाधिवाले को ही इन चारों वाणियों के रुप समझने में समर्थ होता है । लेकिन कोई अन्य पुरुष इन्हें समझ नहीं पाता है।
इति वचनामृतम् ।। ६ ।। ८४ ।।