संवत् १८ की श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन सायंकाल के समय श्रीजी महाराज श्री सारंगपुर में जीवा खाचर के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे । मस्तक पर श्वेत पाग बांधे थे । काले पल्ले का दुपट्टा धारण किया था और सफेद चादर ओढी थी तथा अपने मुखारविन्द के समक्ष मुनियों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा के साथ बैठे थे ।
स्वयं प्रकाशानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'एक भक्त जो नाना प्रकार की पूजा सामग्री लेकर प्रत्यक्ष भगवान की पूजा करता है, और एक भक्त जो अनेक प्रकार के मानसिक उपचारों के द्वारा भगवान की मानसिक पूजा करता है, तो इन दोनों भक्तों में कौन-सा श्रेष्ठ हैं ?'
श्रीजी महाराज ने कहा कि - 'जो व्यक्ति भगवान के प्रेम में अत्यन्त रोमांचित मात्र होकर और गद-गद कंठ से भगवान की प्रत्यक्ष पूजा करता है अथवा उसी प्रकार से मानसिक पूजा करता है वे दोनों श्रेष्ठ हैं । यदि रोमान्चित गात्र और गदगद कंठ से बिना केवल शुष्क हृदय से प्रत्यक्ष भगवान की पूजा करता है तो भी वह न्यून है और मानसी पूजा करता है तो भी न्यून है ।'
तब सोमला खाचर ने पूछा कि - 'इस तरह से प्रेममग्न होकर प्रत्यक्ष भगवान की पूजा करता हो या मानसी पूजा करता हो तो वह भक्त किन लक्षणों द्वारा पहचाना जा सकता है ?'
श्रीजी महाराज ने कहा कि - 'जिस भगवान की सेवा-पूजा, कथा-वार्ता, कीर्तन आदि में अतिशय श्रद्धा हो तथा भगवान का अत्यन्त माहात्म्य समझता हो ये दोनों चीजे दिन प्रतिदिन बिल्कुल नई रहती हो, किन्तु कभी भी गौण न होती हों उसे श्रेष्ठ भक्त कहा जा सकता है । जैसे मुक्तानन्द स्वामी को प्रथम हमने देखा था जैसी श्रद्धा और भगवान का माहात्म्य उस समय था वैसी आज भी है, परन्तु गौण नहीं हुआ । इन लक्षणों के द्वारा अभक्तों को परखना चाहिए । ऐसे माहात्म्य और श्रद्धा के बिना समस्त यादव श्री कृष्ण भगवान के साथ रहते थे और जैसे राजा की सेवा चाकरी करते हैं उसी, तरह उनकी सेवा-चाकरी करते थे, तो कोई भी उनके नाम को नहीं जानता और वे भक्त भी नहीं कहलाये । उद्धवजी श्रीकृष्ण भगवान की श्रद्धा एवं माहात्म्य सहित सेवा-चाकरी करते थे तो वे परम भागवत कहलाये । अतः शास्त्रों एवं संसार में उनकी अतिशय प्रसिद्धि है ।'
निर्विकारानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'हे महाराज ! श्रवण, मनन, निदिध्यासन तथा साक्षात्कार किसे कहा जाता है ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'कानों द्वार वार्ता सुनने को श्रवण कहा जाता है । जो वार्ता सुनी गयी हो उस पर मानसिक रुप से विचार करने पर जितनी वार्ता का त्याग करने योग्य हो उतने का त्याग करे और जितनी ग्रहण करने योग्य हो उनका ग्रहण करे उसे मनन कहते हैं । जो वार्ता निश्चय रुप से मनमें ग्रहण की गयी हो उसे रात-दिन स्मरण करने के अभ्यास को निदिध्यासन कहते हैं। जो वार्ता जैसी हो उसका उसी रुप में चिन्तन किये बिना भी मूर्तिमान के समान पूर्णतः याद होने की बात को साक्षात्कार कहते हैं । इस प्रकार यदि आत्मा के स्वरुप का श्रवण किया हो तो आत्मस्वरुप का इस प्रकार साक्षात्कार हो जाता है । यदि भगवान की कथा का श्रवण, मनन और निदिध्यासन किया हो तो भगवान का इस तरह से साक्षात्कार हो जाता है । परन्तु मनन और निदिध्यासन इन दोनों के किये बिना केवल श्रवण द्वारा ही साक्षात्कार नहीं होता है । यदि भगवान के स्वरुप का दर्शन करने के बाद उसका मनन और निदिध्यासन न किया हो तो लाख वर्षों तक दर्शन करते रहने पर भी उस स्वरुप का साक्षात्कार नहीं होता है । वह दर्शन तो केवल श्रवण मात्र जैसा ही कहलाता है । जिसने भगवान के अंग-अंग का दर्शन करके उसका मनन और निदिध्यास किया होगा तो उस अंग का आज सहज रुप से स्मरण हो आता होगा । जिस अंग का केवल दर्शन मात्र किया होगा उसका स्मरण करने पर भी उसकी स्मृति नहीं होती । कितने हरिभक्त कहते हैं कि - हम तो ध्यान में बैठकर महाराज की मूर्ति का अधिकाधिक स्मरण करते हैं तो भी एक भी अंग की धारणा नहीं होती तो समग्र मूर्ति का ध्यान कैसे हो सकता है ? उसका भी यही कारण है कि वह भी भगवान का दर्शन मात्र करता है परन्तु मनन और निदिध्यासन नहीं करता है । अतः ध्यान में मूर्ति कैसे आ सकती है ? क्योंकि जो मायिक पदार्थ हैं, उन्हें केवल द्रष्टिमात्र से देखा हो और केवल श्रवण से सुना हो तथा मनन ही किया हो, किन्तु मनमें उसका स्मरण न किया हो तो वे जब विस्मृत हो जाते हैं । तब भगवान के अमायिक एवं दिव्य स्वरुप का मनन और निदिध्यासन किये बिना उसकी स्मृति कैसे हो सकती है ? अतः भगवान के दर्शन करके तथा वार्ता सुनकर यदि उसका मनन और निदिध्यासन निरन्तर किया जाय तो उसका साक्षात्कार हो सकता है। वर्ना पूरी उम्र दर्शन श्रवण करते रहने पर भी साक्षात्कार नहीं होता है ।'
इति वचनामृतम् ।। ३ ।। ८१ ।।