वचनामृतम् २

संवत् १८ की श्रावण कृष्ण षष्ठी के दिन श्रीजी महाराज श्री सारंगपुर ग्राम में जीवा खाचर के उत्तरी द्वार के कमरे में बिछे पलंग पर उत्तर की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे । उन्होंने मस्तक पर श्वेत पाग बांधी थी । सफेद पछेडी ओढी थी और श्वेत दुपट्टा धारण किया था । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनियों तथा देश देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
         
श्रीजी महाराज मुनियों से बोले कि - 'आप आपस में प्रश्नोत्तर करें।'
         
स्वयं प्रकाशानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'भगवान के भक्त को भगवान की मूर्ति में अतिशय स्नेह किस प्रकार होता है ?' मुनिजन इस प्रश्न का उत्तर देने लगे परन्तु ठीक उत्तर न हो सका ।
         
बाद में श्रीजी महाराज इस प्रश्न का उत्तर देने लगे कि - 'स्नेह तो रुप, काम, लोभ, स्वार्थ तथा गुण द्वारा भी होता है । उसमें रुप द्वारा जो स्नेह होता है वह देह में पित्त अथवा कोढ निकलने पर नष्ट हो जाता है । इसी प्रकार से लोभ, काम और स्वार्थ द्वारा उत्पन्न हुए स्नेह का भी अन्त में नाश हो जाता है । परन्तु जो स्नेह गुण द्वारा हुआ है, वही अन्त तक रहता है ।
         
तब श्रीजी महाराज से सोमला खाचर बोले कि - 'ये गुण कौन से है, बाह्य हैं या आन्तरिक हैं ।'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'बाह्य गुणों से क्या होता है ? वचन, देह और मन द्वारा उत्पन्न गुणों से जो स्नेह हुआ हो उसका नाश नहीं होता है । क्या आप पूछते हैं कि भक्त को भगवान के ऊपर स्नेह होता है या यह पूछते हैं कि भगवान को भक्त से स्नेह होता है ?'
         
स्वयं प्रकाशानन्द स्वामी बोले कि - 'हम ये दोनों ही प्रश्न पूछते हैं।'
         
श्रीजी महाराज उसकी विस्तार से चर्चा करने लगे कि - 'वचन द्वारा किसी भी जीव या प्राणी मात्र को दुःखी नहीं करना चाहिए । जब परमेश्वर और महान सन्त के बीच प्रश्नोत्तर चल रहा हो और उस बीच आपस में वादविवाद होता हो और ऐसा लगे कि अपनी जीत हो जाएगी तब भी कम आयुवाले को अपने बडों के सामने झुक जाना चाहिए । अपने से बडे सन्त हों उन्हें सभा में लज्जित होना पडे ऐसा प्रश्नोत्तर भी नहीं करना चाहिए । महान सन्त और परमेश्वर के आगे स्वयं को पराजित समझना चाहिए । परमेश्वर और महान सन्त  यदि अपने प्रति कोई योग्य अथवा अयोग्य वचन कहे तो उसे स्नेह पूर्वक तत्काल मान लेना चाहिए । यदि योग्य वचन हो तो उसमें कोई आशंका हो ही नहीं सकती। फिर भी यदि उन्होंने कोई अनुचित वचन भी कह दिया हो तो भी सभा में इन्कार नहीं करना चाहिये । अपनी सहमति ही प्रकट करनी चाहिये और कहना चाहिये कि - 'हे महाराज आप जैसे कहें वैसा ही हम करेंगे ।' यदि वह वचन स्वयं के लिये स्वीकार्य न हो और परमेश्वर और बडे सन्त उस पर सहमत हों तो उनके सामने हाथ जोडकर भक्ति पूर्वक ऐसा कहना चाहिये कि  'हे महाराज आपने जो वचन कहा वह तो ठीक है । परन्तु उसमें मुझे इतनी आशंका हो रही है ।' इस प्रकार से दीनता पूर्वक वचन कहना चाहिये, और यदि परमेश्वर की मर्जी न हो तो उनके समीप वाले महान सन्त तथा हरिभक्तों को इस बात से अवगत करा देना चाहिये कि - 'परमेश्वर ने ऐसा वचन कहा है वह मेरे लिये स्वीकार्य नहीं है ।' इसके बाद यदि बडे सन्त इसका निराकरण करें तथा परमेश्वर के द्वारा कहे वचन जो योग्य या अयोग्य हों, उन्हें मानने से इन्कार नहीं करना  चाहिये । इस प्रकार युक्ति पूर्वक बडों के वचन का सन्मान करना चाहिए । तत्काल उसे मानने से अस्वीकार नहीं करना चाहिये । इस तरह से वचनरुपी गुण से वर्ताव करना चाहिये । तब उस भक्त के ऊपर परमेश्वर और महान सन्त को स्नेह होता है और उस भक्त को भी भगवान से दृढ स्नेह हो जाता है ।
         
अब देह सम्बन्धी गुण द्वारा कैसा व्यवहार करना चाहिये, यह बताते हैं । अपने शरीर में किसी प्रकार की उन्मत्तता दिखाई पडे तो भजन करने बैठ जाना चाहिये अथवा चांद्रायण व्रत द्वारा शरीर को निर्बल कर डालना चाहिये । उसे देखकर यदि बडे सन्त या परमेश्वर शरीर का ध्यान रखें तो ठीक है । परन्तु स्वयं शरीर को व्यवस्थित रखने का कोई प्रयास नहीं करना चाहिये और अपने देह द्वारा भगवान और उनके भक्तों की सेवा - चाकरी करते रहना चाहिये । इस तरह से दैहिक गुणों द्वारा जब भक्त आचरण करने लगता है तब उसे देखकर भगवान और बडे सन्त को उससे स्नेह हो जाता है और भक्त को भी भगवान से प्रीति हो जाती है ।
         
अब मानसिक गुण द्वारा व्यवहार करने की रीति बताते हैं । परमेश्वर का जब दर्शन करें, उस समय मन और दृष्टि को एकाग्र रखना चाहिये । परमेश्वर के दर्शन करते समय वहाँ आये हुये किसी मनुष्य को अथवा श्वान या पशु पक्षी परमेश्वर के दर्शन में से अपनी वृत्ति हटाकर इधर-उधर ऊँची-नीची दृष्टि करके उन्हें भी देखता जाय तो ऐसे विचलित दृष्टि वाले पुरुष को देखकर परमेश्वर या बडे सन्त प्रसन्न नहीं होते । यह पुरुष भगवान के दर्शन करता है तो किस प्रकार करता है ? तो जैसे अन्य मनुष्य करते हैं उसी तरह से वह भी भगवान का दर्शन करता है । ऐसे लौकिक दृष्टि वाले को तो उस गिलहरी के समान समझना चाहिए जो बोलने के साथ ही अपनी पूंछ को भी ऊँचा कर लेती है। क्योंकि वह परमेश्वर के दर्शन के साथ अन्य वस्तुओं को भी देखता जाता है। जब वह ऐसा लौकिक दर्शन करने लगता है तब उसकी स्थिति पहले जैसी अच्छी नहीं रहती और उसकी स्थिति दिन प्रतिदिन खराब होती जाती है ।
         
अतः परमेश्वर के दर्शन करते समय इधर - उधर अपनी दृष्टि नहीं रखनी चाहिये । परमेश्वर के सर्वप्रथम नवीन दर्शन हुये हों उस समय हृदय में जैसी अलौकिकता रही हो वैसी ही अलौकिकता बनी रहनी चाहिये और एक दृष्टि से मूर्ति को देखते रहना चाहिये और दृष्टि को पलटकर अपने अन्तः करण में मूर्ति को उतार लेना चाहिये । जैसे धर्मपुर में कुशल कुंवरबाई थी । वे हमारे दर्शन करती जाती थी और दृष्टि को पलटकर मूर्ति को अपने अन्तः करण में उतार लेती थीं । वैसे दर्शन मनोयोग से दृष्टि को एकाग्र रखकर करना चाहिये । परन्तु दूसरों की तरह दर्शन नहीं करना चाहिये । जो परमेश्वर के दर्शन के साथ-साथ मनुष्य अथवा कुत्ते, बिल्ली को भी देखता जाय तो उसे स्वप्नावस्था में परमेश्वर के साथ-साथ ये अन्य पदार्थ भी दिखायी देते हैं । अतः परमेश्वर के दर्शन तो एकाग्रचित्त होकर एकदृष्टि से करने चाहिये । चंचल दृष्टि से नहीं । जो परमेश्वर के दर्शन दृष्टि को नियन्त्रित करके करता है उसके लिये दर्शन नवीन ही रहते हैं और  परमेश्वर के कहे वचन भी नवीन के नवीन बने रहते हैं । लौकिक और बाह्य दृष्टि से जिसने परमेश्वर का दर्शन किया हो उसके लिये परमेश्वर के दर्शन और वचन पुराने हो जाते हैं । वह रोज दर्शन तो करता है लेकिन उसे दर्शन न हुआ हो, वैसा ही रहता है । वह भजन में जब बैठता है तब उसका मन स्थिर नहीं रहता है । वह अनेक विचार धाराओं से युक्त रहता है और जब परमेश्वर का ध्यान करता है तो उनके साथ-साथ दूसरे जो भी दर्शन किये हों वे वे भी चिन्तन किये बिना हृदय में आने लगते हैं । अतः दर्शन तो एक मात्र परमेश्वर का ही करना चाहिये । इस प्रकार से जो दर्शन करता है उसका मन भजन-स्मरण के समय सिर्फ परमेश्वर में ही रहता है । परन्तु उसमें बहुत विचार धारायें नहीं आतीं । उसमें एक ही विचार धारा रहती है । जो चपल दृष्टि से दर्शन करता है उसे मैं जानता हूँ दृष्टि और मन को नियन्त्रण में रखनेवाले बडे सन्त भी यह जान लेते हैं कि यह तो लौकिक दर्शन करता है । लौकिक दर्शन करने वाला दिनप्रतिदिन इस सत्संग में से हटता जाता है । जैसे कोई कामी पुरुष हो । वह अपनी रुपवती स्त्री में ही एकाग्रता पूर्वक दृष्टि को लगाये रखता है और उस समय बीच में कोई पशु पक्षी का आ जाय अथवा बोले तो भी उसे उसकी सुध नहीं रहती है । उसी तरह एकाग्र दृष्टि से परमेश्वर में अपने मन को तल्लीन रखना चाहिए, परन्तु लौकिक दर्शन नहीं करने चाहिए ।'
         
निर्विकारानन्द स्वामी ने आशंका व्यक्त की - हे महाराज ! हमें तो देश देश में मनुष्यों के समक्ष वार्ता करनी पडती है । उसके कारण मन की  एकाग्रता नहीं रहती ।
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'मनुष्यों के समक्ष वार्ता करने की आज्ञा तो हमने दे रख्खी है । किन्तु यहाँ मूर्ति के दर्शन को छोडकर अन्य दर्शन करने की अनुमति हमने किस दिन दी है ?' ऐसा कहकर वे पुनः वार्ता करने लगे कि - 'यदि प्रथम जब मूर्ति का दर्शन होता है तब उसमें कैसी अलौकिकता रहती है वैसी अलौकिकता तो रहे यदि मन और दृष्टि सहित परमेश्वर में रख्खे। इस प्रकार से मन के भाव द्वारा वर्ताव किया गया तो उस भक्त के ऊपर भगवान का नित्य नवीनतम स्नेह बना रहता है । और उस भक्त को भी भगवान के प्रति नित्य स्नेह रहता है ।
         
नेत्रों को और श्रोत्रेन्द्रिय को तो विशेष रुप से नियम में रखना चाहिये। इसका कारण यह है कि जहाँ जहाँ लौकिक वार्ता होती है उसे श्रोत्रेन्द्रियों द्वारा आकृष्ट होकर सुना जाय तब इन समस्त लौकिक शब्दों की स्मृति भजन के समय आ जाती है । इसी तरह से अनियन्त्रित नेत्रवृत्ति द्वारा जो - जो रुप देखा हो उन सबका स्मरण भी भजन करते समय आ जाता है । अतः इन दोनों इन्द्रियों  को अत्यन्त नियम में रखना चाहिये । मूर्ति का दर्शन करते समय जब आँखें एवं श्रोत्रेन्द्रिय मूर्ति के दर्शनों को छोडकर अन्यत्र आकृष्ट हो जाती हैं, तब इन इन्द्रियों को यह उपदेश देना चाहिये कि - हे मूर्ख इन्द्रिय ! तू भगवान की मूर्ति को छोडकर अन्य रुपों को देखती है या परमेश्वर की वार्ता का त्याग करके दूसरी बात को सुनती है, तो उससे तुझे क्या प्राप्त होगा ? अभी तो तेरी सिद्ध दशा नहीं आयी है कि जैसा चिन्तन करे उसका फल तुझे तत्काल मिल जाय। इसका कारण यह है कि अभी तो तू साधक है । इसलिये जिस विषय का तू चिन्तन करेगी उसकी प्राप्ति नहीं हो सकेगी । अतः व्यर्थ की लालसा करके तू परमेश्वर को क्यों छोड रही है ? यदि तुझे कोई अल्प विषय प्राप्त भी हो गया तो उसके पाप के कारण तुझे यमपुरी में जाना पडेगा । वहाँ इतना मारा-पीटा जायगा कि उस का अन्त नहीं आयेगा । इस तरह से आँखों और श्रोत्रेन्द्रिय को उपदेश देना चाहिए ।' साथ ही उस जीव को इस तरह से कहना चाहिए कि - 'जब तू भगवान की मूर्ति में एकाग्र हो जायगा तब उसमें से सिद्ध दशा प्राप्त होगी, तब तू ब्रह्मांड में होनेवाली समस्त वार्ताओं को सहज रुप से सुन सकेगा । ब्रह्मा, विष्णु और शिव के सदृश रुप को प्राप्त करने की इच्छा करेगा। तब तुझे इच्छित रुप भी मिल जायगा, और यदि लक्ष्मी या राधिका जैसा भक्त होने की इच्छा करेगा तो वैसा ही हो जायगा । यदि अपने जीवन काल में भगवान का भजन करते करते सिद्ध दशा को न प्राप्त कर सका तो देह छोडने के बाद मुक्त होने पर सिद्ध दशा मिल जायगी । परन्तु सिद्ध दशा प्राप्त हुए बिना यदि तू लौकिक या स्त्रियों के रुप को देखकर भी मर जायगा तो भी तुझे वह रुप नहीं मिल पायेगा । यदि ग्राम्य शब्दों को सुन सुनकर भी मर जायगा तो भी उनसे बुद्धि भ्रष्ट हो जायगी और उसमें से कुछ भी प्राप्त नहीं होगा ।'
         
इस प्रकार से आँखों और श्रोत्रन्द्रिय को उपदेश देकर एकमात्र भगवान की मूर्ति में ही अपना ध्यान लगाना चाहिए । जो इस तरह आचरण करता है उसे भगवान की मूर्ति में दिन प्रति दिन अधिक स्नेह हो जाता है । उस भक्त पर परमेश्वर तथा साधु का स्नेह होने के कारण वह प्रतिदिन आगे बढता जाता है ।               

इति वचनामृतम् ।। २ ।। ८० ।।