संवत् १८ की श्रावण कृष्ण अष्टमी के दिन श्रीजी महाराज श्री सारंगपुर ग्राम स्थित जीवा खाचर के दरबार में, कमरे के बरामदे में पलंग पर उत्तर की ओर मुख करके विराजमान थे । उन्होंने मस्तक पर श्वेत पाघ बांधी थी सफेद पछेडी ओढी थी और श्वेत दुपट्टा धारण किया था । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनियों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
स्वयं प्रकाशानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'हे महाराज ! आत्मा अनात्मा सम्बन्धी शुद्ध विवेक को किस प्रकार समझा जाय ? वह विवेक कैसा होना चाहिए जिसके रहने पर आत्मा-अनात्मा को एक ही न समझा जाय ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'एक श्लोक, दो श्लोक, पांच श्लोकों अथवा एक हजार श्लोकों द्वारा जो बात अच्छी तरह समझ में आ जाय वही उत्तम है । जिसे समझने के बाद आत्मा-अनात्मा की एकता का संशय नहीं रहता। जिसे अच्छी तरह से समझा जा सके वही विवेक सुखदायी होता है । दुर्बुद्धिवाली समझ सुखदायी नहीं होती । अतः यह स्पष्ट रुप से समझ लेना चाहिए कि मैं आत्मा हूँ इसलिए देह में मेरे जैसा एक भी गुण नहीं आता । जड दुःख तथा मिथ्या रुप देह के गुणों में से एक भी गुण मुझ में नहीं आता क्योंकि मैं चैतन्य हूँ ।
ऐसे विवेक को समझकर अत्यन्त निर्वासनिक होकर चैतन्य रुप द्वारा पुरुषोताम भगवान का चिन्तन करना चाहिए । जड चैतन्य के विवेक को दृढ विवेक जानना चाहिए । थोडी देर वह अपने को आत्मा रुप मानता है और क्षणभर में अपने को देहरुप मानकर स्त्री का चिन्तन करता है ऐसे व्यक्ति को दुर्बुद्धिवाला समझना चाहिए और उसके अन्तर में सुख भी नहीं आता है । जिस प्रकार से सुन्दर अमृत के सदृश अन्न हो उसमें थोडा सा जहर मिला दिया जाय तो वह अन्न सुखदायी नहीं होता, बल्कि दुःखदायी हो जाता है । वैसे ही आठों प्रहर आत्मा सम्बन्धी विचार करके एक घडी स्वयं देहरुप मानकर यदि स्त्री का स्मरण किया जाता है तो उसके सभी विचार धूल में मिल जाते हैं । अतः अत्यन्त निर्वासनिक होने के लिए हमेशा शुद्ध आत्मविचार करना चाहिए ।'
यदि किसी व्यक्ति को ऐसा संशय होता है कि - 'अत्यन्त निर्वासनिक नहीं हो पायेंगे और ऐसे ही अपरिपक्वावस्था में मर जायेंगे तो क्या हाल होगा? ऐसा विचार भगवान के भक्तों को नहीं करना चाहिए । उसे तो ऐसा समझना चाहिए कि 'मौत आई तो शरीर मरेगा मैं तो आत्मा हूँ, और अजर अमर हूँ मैं नहीं मरता । ऐसा समझकर हृदय में हिम्मत रखनी चाहिए और परमेश्वर के सिवा अन्य समस्त वासनाओं का त्याग करके अचल बुद्धि रखनी चाहिए ।'
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इस तरह से वासना को टालते-टालते यदि कुछ न्यूनाधिक वासना रह जाय तो उसे मोक्ष धर्म में बताये गये नर्को की प्राप्ति होगी । उन नर्कों का वर्णन यह है कि भगवान के भक्त यदि तनिक भी सांसारिक वासना रह गयी हो तो उसे इन्द्रादि देवताओं के लोकों की प्राप्ति होती है । इन लोकों में जाने पर अप्सराएँ, विमान तथा मणिमंडित महल आदि समस्त वैभव उपलब्ध हो जाते हैं, परन्तु वे परमेश्वर के धाम की तुलना में नरक सदृश होते है । भगवान के भक्त इन वैभवों का उपभोग करते हैं । उन्हे यमपुरी और चौरासी लाख योनियों में भटकना नहीं पडता है । यदि भगवान के सवासनिक भक्त होंगे तो बहुत होगा तो उन्हें देवता होना पडेगा । यदि देवलोक से पतन हो गया तो मनुष्य शरीर धारण करना पडेगा मनुष्य होकर यदि भगवान की भक्ति की और वे निर्वासनिक हो गये तो अन्त में भगवान के धाम की प्राप्ति हो जायगी । परन्तु विमुख जीव के सदृश नरक चौरासी नहीं भोगना पडेगा । ऐसा समझकर भगवान के भक्त को वासना का जोर देखकर हिम्मत नहीं हारनी चाहिए । आनन्द में रहकर भगवान का भजन करना चाहिए और वासना को टालने का उपाय करना चाहिए तथा भगवान और उनके सन्त के वचनों में दृढ विश्वास रखना चाहिए ।'
इति वचनामृतम् ।। ४ ।। ८२ ।।