संवत् १८ की भाद्र पक्ष शुक्ल तृतीया को स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री सारंगपुर ग्राम में जीवा खाचर के दरबार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने काले पल्लू का श्वेत दुपट्टा धारण किया था । सफेद चादर ओढी थी । मस्तक पर श्वेत पाग बांधी थी । कानों में पीले पुष्पों के गुच्छ लगाये हुए थे और पाग में पीले फूलों के तुर्रे धारण किये थे । उनके कंठ में पीले पुष्पों का हार नाभि तक लटकता हुआ सुशोभित हो रहा था । श्रीजी महाराज पश्चिम की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे । उनके मुखारविन्द क समक्ष मुनियों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
स्वयं प्रकाशानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'भगवान ने गीता में कहा है कि जो भगवान के भक्त होते है वे भगवान के बैकुंठादि धामों की प्राप्ति करके वहाँ से वापस नहीं लौटते और वहाँ से जिसका पतन होता होगा वह किस दोष से होता है ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'भगवान के धाम की प्राप्ति करके वहाँ से कौन गिरा है एक तो बताइये ?
स्वयं प्रकाशानन्द स्वामी ने कहा कि एक तो बैकुंठ से भगवान के पार्षद जय-विजय का पतन हुआ तथा गौलोक से राधिकाजी तथा श्रीदामाजी पडे ।
श्रीजी महाराज बोले कि जय-विजय का जो पतन हुआ वह तो भगवान ने अपने सन्त की महिमा दिखाने के लिये किया कि 'सनकादिक जैसे साधु का द्रोह करने से बैकुंठादि जैसे धामों की प्राप्ति होने पर भी किसी का पतन हो जाता है ।' जय-विजय तो पुनः तृतीय जन्म में भगवान के बैकुंठ धाम में पहुँच गये । अतः इन्हें गिरा हुआ नहीं कहा जा सकता । क्योंकि उनका पतन तो भगवान की इच्छा से हुआ । गिरा हुआ तो उसे कहा जा सकता है जिसका भगवान से पुनः कोई सम्बन्ध ही न रहे । गौलोक से राधिकाजी गिरी वह भगवान की इच्छा ही थी क्योंकि स्वयं भगवान को मनुष्य देह धारण करके असंख्य जीवों का उद्धार करना था और अपने कल्याणकारी चरित्रों के विस्तार करना था । अतः यदि राधिकाजी को गिरा हुआ कहा जाय तो उसके साथ भगवान भी गिरे हुये कहलायेगे । अतः भगवान की इच्छा से ही गौलोक से जो पृथ्वी पर आये अतः उन्हें गिरा हुआ नहीं कहा जा सकता । यहाँ तो भगवान की इच्छा हो तो अक्षरधाम में से किसी को भी देह धारण करना पडे और जड हो वह चैतन्य हो जाता है और चैतन्य जड हो जाता है क्योंकि भगवान अति समर्थ हैं । वे जैसा करते हैं वैसा ही होता है । परन्तु भगवान की इच्छा के बिना भगवान के धाम की प्राप्ति करने के पश्चात कोई गिरता ही नहीं है । जो गिरते है वे आधुनिक अपरिपक्व भक्त होते हैं । वे साधना काल में से ही गिर जाते हैं । उसे योगभ्रष्ट कहा जाता है । परन्तु वैराग्य, आत्मनिष्ठा, भगवान की भक्ति तथा ब्रह्मचर्यादि धर्मो द्वारा जो सिद्ध होते हैं वे तो श्वेतद्वीप में मुक्तजन के समान हैं । उनका किसी भी काल में पतन नहीं होता ।'
इस प्रकार से श्रीजी महाराज ने इतनी बात करके कहा कि - 'अब हम एक प्रश्न पूछते हैं ।' मुनियों ने कहा पूछिये । श्रीजी महाराज बोले कि 'महाभारत के उयोग पर्व में सनत्सुजात ऋषि ने धृतराष्ट्र से कहा कि एक प्रमाद और दूसरा मोह इन दोनों का त्याग करनेवाला जीव समस्त प्रकार से भगवान की माया को पार कर लेता है । प्रमाद और मोह का नाम ही माया है ।' अतः हम त्यागी लोगों को भगवान का भक्त कहा जाता है । उनमें जिसे प्रमाद और मोह रहता होगा और वह भक्त भगवान की महिमा का बल प्राप्त करके प्रमाद और मोह टालने की सावधानी नहीं रखता होगा उसे अपने जीवनकाल में कैसा सुख रहेगा और मर कर वह कैसा सुख प्राप्त करेगा ?'
स्वयं प्रकाशानन्द स्वामी बोले कि - जो भगवान का भक्त हो, वह भगवान का अतिशय माहात्म्य विचार करके प्रमाद एवं मोह के न होने पर भी उसके सम्बन्ध में अधिक चिन्ता नहीं करता ।
श्रीजी महाराज बोले कि - भगवान का भक्त हो उसे प्रमाद और मोह रहता हो फिर भी उन्हें टालने की सावधानी रखता हो तो उसका कितना दोष है, और जो उसे टालने की चिन्ता न करे उसकी क्या विशेषता है ?
स्वयं प्रकाशानन्द स्वामी बोले कि - 'भगवान का बल रक्खे और साधन पर भरोसा नहीं रखता इतनी उसकी विशेषता है ।
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसे प्रमाद और मोह रुपी शत्रु रहने पर भी जो गाफिल रहता है, उसे तो आप श्रेष्ठ कहते हैं । जैसे कोई पतिव्रता स्त्री हो वह पति के डर से पतिव्रत धर्म करने की आशंका से मनमें अत्यन्त सतर्कता रखते हुए किसी पुरुष से हसकर ताली नहीं बजा सकती और उसके मन में यद डर लगा रहता है कि 'मैं गफलत रक्खूंगी तो मेरा पति मुझे व्यभिचारिणी समझेगा और मेरी सेवा को स्वीकार नहीं करेगा । जिससे मेरे पतिव्रत धर्म में बाधा पडेगी । वैसे ही जो भक्त ऐसी पतिव्रता स्त्री के समान भक्ति रखता है और प्रमाद तथा मोह को टालने की सावधानी बर्तता है उसे तो आप दोषी बताते है । जैसे कोई स्त्री अपने मनमाने पुरुष के साथ हँस बोलकर घूमती फिरती है तथा पतिव्रता धर्म का पालन करने की सावधानी भी नहीं रखती वैसे ही जो भक्त प्रमाद और मोह को टालने की सावधानी नहीं रखता उसे आप श्रेष्ठ बताते हैं । यह आपकी उल्टी बुद्धि नहीं है तो और क्या है ? जो गफलत रखेगा और वह यदि भगवान का भक्त होगा तो उसके समक्ष प्रमाद तथा मोह नामक दो शत्रु बाधा डाले बिना नहीं रहेगें । जैसे मदिरा और भांग पीकर विमुख को नशा चढता है वैसे ही भगवान के भक्त को भी नशा चढता है और वह पागल हो जाता है । उसी तरह से मदिरा और भांग रुपी प्रमाद तथा मोह जैसे विमुखजीव के सामने बाधा डालते है और भगवान के भक्त के समक्ष भी बाधा उत्पन्न करते हैं । विमुख जीव और हरिभक्त में सिर्फ इतना ही अन्तर है कि विमुख से ये दोनों शत्रु टलते नहीं किन्तु भगवान का भक्त सावधानी रखकर उन्हें टालने का प्रयास करे तो इन दोनों शत्रुओं का नाश हो सकता है ।' इतनी भगवान के भक्त की विशेषता है । यदि वह गफलत रखता है तो भगवद् भक्त होते हुए भी वह अच्छा नहीं है ।
श्रीजी महाराज ने पुनः प्रश्न पूछा कि - 'स्थूल शरीर कितने तत्त्व के हैं और सूक्ष्म शरीर कितने तत्त्वों के हैं ? स्थूल देह और सूक्ष्म देह में समान तत्व है या कम या अधिक हैं ? इन दोनों शरीरों का स्वरुप बताइये ?'
स्वयं प्रकाशानन्द स्वामी इस प्रश्न का उत्तर देने लगे किन्तु वे यथार्थ उत्तर न दे सके । तब समस्त मुनि बोले कि हे महाराज ! कृपया आप इसका उत्तर दीजिये ।
श्रीजी महाराज बोले कि - 'स्थूल शरीर तो पृथ्वी आदि पंच महाभूत नामक पांच तत्वों के हैं । सूक्ष्म शरीर पांच ज्ञानेन्द्रिय पांच कर्मेन्द्रिय, पांच प्राणों, चार अन्तःकरणों अर्थात उन्नीस तत्वों का है । उस स्थूल शरीर में भी जब सूक्ष्म शरीर अनुस्यूत भाव से रहता है तभी समस्त क्रियाएँ यथार्थ रुप से होती हैं । परन्तु उसके बिना नहीं होती । क्योंकि कान, नेत्र आदि इन्द्रियों के गोलोक से युक्त स्थूल शरीर में उन-उन इन्द्रियों सहित सूक्ष्म शरीर में मिलता है । उसके द्वारा उन-उन इन्द्रियों के विषयों का ग्रहण होता है । परन्तु केवल स्थूल देह के गोलोक से नहीं होता । अतः पंचतत्व का स्थूल शरीर उसमें उन्नीस तत्वों का सूक्ष्म शरीर अनुस्यूत रुप से रहा है । इसलिए स्थूल देह में भी चौबीस तत्व हैं । सूक्ष्म देह में भी पंच तत्वों का स्थूल शरीर एकत्वरुप से रहता है । तभी सूक्ष्म देह का भोग सिद्ध होता है । सूक्ष्म शरीर उन्नीस तत्वों का है । उसमें पांच तत्वों का स्थूल शरीर मिलता है अतः सूक्ष्मदेह भी चौबीस तत्वों का है । सूक्ष्म देह में स्थूल देह स्थित है । सूक्ष्मदेह में स्त्री का संग करने से स्थूल देह में वीर्यपात होता है । अतः स्थूल देह की तथा सूक्ष्म देह की जाग्रत अवस्था में तथा स्वप्नावस्था में देह की एकता रहती है ।
मुनिने पुनः प्रश्न पूछा कि - 'हे महाराज ! इस प्रकार स्थूल देह के सदृश ही सूक्ष्म देह हुई तब जैसे स्थूल देह में कर्मो का बन्धन रहता है वैसे ही क्या सूक्ष्म देह में भी कर्म बन्धन रहता है या नहीं ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'स्थूल देह में जो अपनत्व की दृढ मान्यता है, वैसी ही मान्यता यदि सूक्ष्म देह में हो तो स्थूल देह के कर्मो के समान सूक्ष्म देह में भी कर्म बन्धन हो जाता है । सूक्ष्म देह के कर्मों को अल्प कहा गया है उसके उद्देश्य जीव को हिम्मत देने के लिये है । जिसे स्थूल देह में तथा सूक्ष्म देह में अभिमान नहीं रहता उस पर स्थूल और सूक्ष्म देह सम्बन्धी कर्मों का बन्धन रहता ही नहीं है । आत्मज्ञानी तो शरीर द्वारा अशुभ कर्म करता ही नहीं है फिर भी प्रारब्ध के अनुसार जो सुखदुःख आता है उसे भोता है । वह इनको भोगते हुये यह मानता है कि 'मैं इनका भोक्ता नहीं हूँ बल्कि आत्मा हूँ । जो अज्ञानी देहाभिमानी पुरुष होता है उस पर तो स्थूल देह और सूक्ष्मदेह सम्बन्धी सभी कर्मों का असर पडता है । तब वह कर्मों के अनुसार सुख-दुःख भी भोगता है जो अज्ञानी है वह जिस जिस विषय को भोगता है तो उसे भोगता हुआ स्वयं को देह रुप समझकर ऐसा मानता है कि 'मैं इस विषय का भोक्ता हूँ' जब अन्त समय आता है तब उस अज्ञानी जीव को यम के दूत दिखाई पडते हैं । उस समय उसे देह की विस्मृति हो जाती है और मुर्छावस्था हो जाती है । उसके बाद यमदूत उसके शरीर से जीव को बाहर निकालते हैं । तब उस जीव को प्रेत का शरीर प्राप्त होता है जिससे वह यमपुरी के कष्टों को भोगता है ।
भगवान के ज्ञानी भक्त को अन्त समय में भगवान अथवा उनके संत के दर्शन होते हैं और उसे भी देह की विस्मृति हो जाती है । मूर्छावस्था आती है फिर भी जब वह शरीर को छोडकर अलग होता है, तब उस भक्त को भगवान भागवती शरीर प्रदान करते हैं, जिसे धारण करके वह भगवान के धाम में निवास करता है ।'
इति वचनामृतम् ।।१४।। ।। ९२ ।।