संवत् १८ की भाद्र-शुक्ल द्वितीया के दिन श्रीजी महाराज श्री सारंगपुर ग्राम में जीवा खाचर के दरबार में उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे । वे श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनियों तथा देश-देशों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'जिसे भगवान के स्वरुप का निश्चय होने के बाद वह मिट जाता है तो उसे प्रथम निश्चय हुआ था या नहीं ?'
स्वयंप्रकाशानन्द स्वामी बोले कि - 'जिसे अपनी जीवात्मा में निश्चय हुआ हो वह तो किसी भी तरह नहीं टलता । यदि शास्त्र की दृष्टि से निश्चय हुआ हो किन्तु परमेश्वर यदि ऐसा चरित्र करें जो शास्त्रों में न मिले तो भगवान सम्बन्धी निश्चय होकर भी मिट जाता है ।'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'शास्त्रों में तो परमेश्वर के सामर्थ्य, असामर्थ्य, कर्तव्य एवं अकर्तव्य जैसी अनेक बाते बताई गई हैं । अतः परमेश्वर ने शास्त्रो के विरुद्ध ऐसा कौन सा चरित्र दिखाया होगा जिससे उनके सम्बन्ध में निश्चय समाप्त हो गया हो ? इस प्रश्न का उत्तर करिए ?
समस्त मुनि बोले कि - 'शास्त्र सम्मत न हो ऐसा कोई परमेश्वर का चरित्र नहीं है । अतः हे महाराज ! आप बताइये कि जीव को भगवान के सम्बन्ध में निश्चय होने के बाद भी वह क्यों मिट जाता है । इसका क्या कारण है ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसे भगवान का निश्चय होता है वह शास्त्रों द्वारा ही होता है, क्योंकि शास्त्रों में परमेश्वर के और सन्त के भी लक्षणों का वर्णन होता है । अतः शास्त्र द्वारा जो निश्चय होता है वह अचल होता है । किन्तु शास्त्र के बिना अपने मन से जो निश्चय किया हो वह निश्चय टल जाता है । धर्म की प्रवृत्ति के कारण भी शास्त्र ही हैं । जिन्होंने कभी भी शास्त्र का श्रवण नहीं किया है ऐसे अज्ञानी जीवों में भी माता, बहन, पुत्री और स्त्री सम्बन्धी विवेकबुद्धि धर्म की मर्यादा आज तक चली आ रही है । उसके कारण भी शास्त्र ही है । क्योंकि सर्व प्रथम शास्त्रों में से ही किसी ने सुनी होगी जो परम्परागत सबमें प्रचलित हुई है । अतः जिसे भगवान का निश्चय होकर टल जाता है उसे तो शास्त्रों की प्रतीति नहीं होती । वह तो मनमानी बात करने वाला और नास्तिक है । यदि उसे शास्त्रों की प्रतीति होती तो वह कभी भी परमेश्वर से विमुख नहीं हो सकता । क्योंकि शास्त्रों में तो अनेक प्रकार के भगवान के चरित्र हैं । अतः परमेश्वर चाहे कैसा भी चरित्र करे, परन्तु वह शास्त्र के बाहर नहीं होता । जिसे शास्त्र के वचनों में विश्वास होता है उसीको भगवान के स्वरुप का अटल निश्चय रहता है और उसीका कल्याण भी होता है और वह कभी भी धर्म से डगमगाता नहीं है ।'
इति वचनामृतम् ।। १३ ।। ९१ ।।