वचनामृतम् १५

संवत् १८ की भाद्रपक्ष शुक्ल चतुर्थी को श्रीजी महाराज श्री सारंगपुर ग्राम में जीवा खाचर के दरबार में कमरे के बरामदे में विराजमान थे । उन्होंने श्वेत वस्त्रधारण किये थे । उनके मुखार विन्द के समक्ष मुनियों तथा देश देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'अच्छा अब हम प्रश्न करते हैं कि - भगवान के भक्त दो प्रकार के होते हैं । इसमें से एक भक्त को तो भगवान से अत्यन्त प्रीति होती है और भगवान के दर्शन के बिना वह क्षण भर भी नहीं रह सकता है । उसका प्रेम बाह्य रुप से भी अधिक दिखता है । भगवान का जो दूसरा भक्त है उसे तो आत्मनिष्ठा भी है, वैराग्य भी परिपूर्ण है और भगवान में प्रीति है । तब भी उसका प्रेम पहले भक्त के समान नहीं मालूम होता । प्रथम भक्त में आत्मनिष्ठा तथा वैराग्य नहीं है फिर भी उसकी भक्ति सुशोभित रहती है । किन्तु आत्मनिष्ठा और वैराग्ययुक्त जो भक्त है उसकी भक्ति पहले बताये भक्त की भाँति शोभित नहीं होती । इन दो प्रकार के भक्तों में किसकी भक्ति श्रेष्ठ है और किसकी भक्ति कनिष्ठ है ?'
         
स्वयं प्रकाशानन्द स्वामी बोले कि - 'आत्मनिष्ठा तथा वैराग्य न रहने पर भी जिसे भगवान पर अतिशय प्रेम हो वही श्रेष्ठ है ।'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसे वैराग्य और आत्मनिष्ठा नहीं है उसे आप किस प्रकार से श्रेष्ठ बताते हैं । क्योंकि वह तो देहाभिमानी है । अतः जब इसे शारीरिक सुख मिलेगा और ऐसे पंच विषयों का योग होगा तब इसको विषयों में प्रीति हो जायगी । तब इसे भगवान से वैसी प्रीति नहीं रहेगी । आप उसे श्रेष्ठ क्यों कहते हैं ?'
         
स्वयं प्रकाशानन्द स्वामी बोले कि - 'जिसे विषयों में प्रीति हो उसे हम भगवत्प्रेमी नहीं कहते । हम तो गोपियों जैसे भक्तों को ऐसा कहते हैं ।'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'गोपियाँ भोली नहीं थी । वे तो आत्मनिष्ठा और वैराग्य युक्त भक्तों से भी बढकर समझदार थीं । जैसे कोई राजनीतिज्ञा बोले उसी तरह से गोपियाँ भी बोलने में होशियार थीं । और वे भगवान को भी यथार्थ रुप से जानती थीं । समस्त यादवों में अतिशय बुद्धिमान तथा भगवान के दूत उद्धवजी गोपियों की बुद्धिमत्ता को देखकर गदगद हो गये थे । तब उद्धवजी इस प्रकार के लिये मुझे भेजकर भगवान ने मुझ पर अत्यन्त अनुग्रह किया क्योंकि वह स्वयं गोपियों को उपदेश देने के लिये गये थे । परन्तु गोपियों के वचन सुनकर उन्होंने खुद उनसे उपदेश ग्रहण किया । आप कहेंगे कि गोपियाँ तो                   ऐसी बुद्धिमान नहीं थीं । उनमें मुग्धा, मध्या और प्रौढा नामक तीन प्रकार के भेद थे ।'
         
उसमें मुग्धा का यह लक्षण है कि वह भगवान को खूब चकमा दे फिर यह वचन बोले कि हम आपके लिये कर कर के मर गये फिर भी आप उसे नजर में नहीं लाते । 'ऐसा कहने पर उसे ज्यादा छेडा जाय तो नहीं भगवान से रुठकर उन्हें तुच्छ वचन बोलने लगे । और ऐसा मालूम हो कि वह अभी  विमुख हो जायेगी । इस प्रकार का वचन बोलने वाले को शास्त्र में मुग्धा कहा गया है ।
         
मध्या जो है, वह किसी भी दिन भगवान के सामने रोष नहीं प्रकट करती और तुच्छ वचन भी नहीं कहती । किन्तु चतुराई पूर्वक अपना स्वार्थ दूसरे को नहीं मालूम होने देती और अपना काम भी करा डालती है । तथा भगवान की बात पर राजी हो जाती है । किन्तु अकेले भगवान की बात नहीं मानती यदि भगवान की इच्छा पूरी करनी पडे तो इसके साथ साथ अपनी बात भी मनवाने की युक्ति जरुर खोज लेती हैं । शास्त्रों में जिसके वचन पर इस प्रकार के हों उस गोपी को मध्या जानना चाहिये ।
         
जो प्रौढा होती हैं वे तो केवल भगवान की इच्छानुसार ही चलती हैं। और किसी प्रकार से अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये युक्ति नहीं खोजती हैं । वे केवल भगवान को प्रसन्न करने की इच्छा करती हैं । भगवान जिसमें प्रसन्न रहे उसी में उनकी प्रसन्नता रहती है । वे अपनी बराबर वाली गोपियों पर ईर्ष्या और क्रोध भी नहीं करती तथा मान- मत्सर आदि समस्त विकारों का परित्याग करके भगवान की सेवा में सावधान रहती हैं । वे मन, कर्म, वचन द्वारा भी कभी ऐसा आचरण नहीं करती जिससे भगवान अप्रसन्न हों, शास्त्रों में ऐसी गोपियों को प्रौढा कहा गया है ।
         
इस प्रकार मुग्धा, मध्या और प्रौढा गोपियों के भेद हैं । इसलिये गोपियों की समझ में अतिशय विवेक था । उनकी प्रीति को अविवेकपूर्ण नहीं कहा जा सकता । गोपियाँ तो भगवान की महिमा यथार्थ रुप से जानती थीं । उस महिमा के प्रताप से ही उनके हृदय में आत्मनिष्ठा तथा वैराग्य की भावना स्वाभाविक रुप से रहती थी । अतः उन गोपियों में भगवान के माहात्म्य के प्रताप से आत्मनिष्ठा तथा वैराग्य आदि अनेक कल्याणकारी गुण सम्पूर्ण रुप से बने हुये थे ।
         
ऐसे भक्तों की रीति यह है कि वे 'शब्द, स्पर्श, रुप, रस और गन्ध नामक पांच विषयों के बल भगवान की इच्छा सम्बन्धी ही करे । परन्तु अन्य किसी विषयों की इच्छा न करें । भगवान में इन पंच विषयों द्वारा अतिशय स्नेह से वैराग्य और आत्मनिष्ठा की भावना न हो तो भी हृदय में भगवान के सिवा जगत के किसी भी अन्य संकल्पों को स्थान नहीं देना चाहिये । जैसे वर्षा नहीं हुयी हो तब तक अनेक प्रकार के तृण-बीज पृथ्वी पर कहीं नहीं दिखायी देते, किन्तु वर्षा होते ही इतने अधिक तृण दिखायी देने लगते हैं कि पृथ्वी ही नहीं दिखायी देती । वैसे ही आत्मनिष्ठा और वैराग्य रहित पुरुष को यदि भगवान के सिवा अन्य किसी भी विषय के संकल्प मालूम नहीं होते फिर भी जब उसके लिये कुसंग का योग होगा तब अन्य विषयों के संकल्प होने लगेगें, तथा बुद्धि भी भ्रष्ट हो जायगी और तब उसके हृदय में परमेश्वर की स्मृति भी नहीं रहेगी तथा विषयों का ही अखंड ध्यान बना रहेगा । तब वैराग्य तथा आत्मनिष्ठा रहित प्रेमी को ऐसा आभास होने लगेगा कि 'भगवान से मुझे लेशमात्र भी प्रीति नहीं है ।' अतः आत्मनिष्ठा तथा वैराग्य रहित जो प्रेमी भक्त दिखाई देते हैं उनमें तो अत्यन्त न्यूनता रहती है, जिसमें आत्मनिष्ठा वैराग्य तथा भगवान में साधारण प्रीति भी है वह तो ऐसा मानता है कि 'मेरी जीवात्मा में ही भगवान की मूर्ति के दर्शन स्पर्शादि  के सम्बन्ध में आतुरता नहीं दिखती और शान्त भाव जैसा दिखायी पडता है तो भी उसकी प्रीति की जडें गहरी हैं । किसी कुसंग के योग से भी उसकी प्रीति की जडे गहरी हैं । किसी कुसंग के योग से भी उसकी प्रीति कम नहीं हो सकती । अतः वह भक्त श्रेष्ठ है और एकान्तिक है ।
                           
इति वचनामृतम् ।।१५।। ।। ९३ ।।