वचनामृतम् ९

संवत् १८ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष की षष्ठी के दिन श्रीजी महाराज गाम श्री लोया में सुराभक्त के दरबार में विराजमान थे । उन्होंने श्वेत छींट की बगलबंडी पहनी थी । सफेद चूडीदार पायजामा पहना था और सिर पर सफेद फेंटा बाँधा था । उनके मुखारविन्द के समक्ष परमहंस तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'समस्त परमहंस परस्पर प्रश्न उत्तर करिए।' तब आत्मानन्द स्वामी ने अखंडानन्द स्वामी से प्रश्न पूछा कि - 'वैराग्य, ज्ञान, भक्ति तथा धर्म की भावना इन चारों के उत्पन्न होने का क्या हेतु है ?'
         
इसका उत्तर श्रीजी महाराज ने किया कि - 'काल का रुप जानने पर वैराग्य उत्पन्न होता है । उस काल का स्वरुप क्या है कि वह नित्य प्रलय, नैमित्तिक प्रलय, प्राकृत प्रलय, आत्यन्तिक प्रलय तथा ब्रह्मादिक स्तंब पर्यन्त समस्त जीवों के आयुष्य की जानकारी प्राप्त करके पिंड-ब्रह्मांड पदार्थों को काल का भय समझना चाहिए । तभी वैराग्य उत्पन्न होता है । और ज्ञान तो इस प्रकार होता है जो वृद्धारण्य, छान्दोग्य तथा कठवल्ली आदि उपनिषदों और भागवत गीता, वासुदेव माहात्म्य एवं व्याससूत्र आदि ग्रन्थों का सदगुरु द्वारा श्रवण करने से ज्ञान उत्पन्न होता है । याज्ञावल्कय स्मृति, मनुस्मृति, पाराशर स्मृति तथा शंख लिखित स्मृति आदि स्मृतियों का श्रवण करने से धर्म की भावना उत्पन्न होती है और उसके प्रति निष्ठा होती है । भक्ति की उत्पत्ति तो भगवान की विभूतियों को जानने से होती है । भक्ति की उत्पत्ति तो भगवान की विभूतियों को जानने से होती है । उसकी जानकारी तो खंड-खंड के प्रति भगवान की जो मूर्तियाँ रहती हैं उनके सम्बन्ध में श्रवण करते रहना चाहिए और भगवान के गोलोक बैकुंठ ब्रह्मपुर तथा श्वेतद्वीप आदि धामों की कथा सुननी चाहिए जगत की उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय रुपी भगवान की लीला को माहात्म्य सहित सुनना चाहिए  और भगवान के रामकृष्ण आदि अवतारों की कथाओं का स्नेहपूर्वक श्रवण करना चाहिए । ऐसा करने से भगवान की भक्ति उत्पन्न होती है । इन चारों में जो धर्म है उसकी उत्पत्ति अपरिपक्व बुद्धि के कारण पहले से ही कर्मकांडरुपी स्मृतियों का श्रवण करने से होती है । धर्म में दृढता होने के बाद उपासना ग्रन्थ को सुनना चाहिए । तब व्यक्ति में ज्ञान भक्ति और वैराग्य की भावना उत्पन्न होती है । इस प्रकार से इन चारों की उत्पत्ति का हेतु रहता है ।
                             
इति वचनामृतम् ।।९।।  ।। ११७ ।।