वचनामृतमप १०

संवत् १८ मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष की अष्टमी के दिन श्रीजी महाराज ग्राम श्री लोया में सुराखाचर के राजभवन में प्रातःकाल के समय पलंग पर  विराजमान थे । उन्होंने श्वेत छींट की बगलबंडी पहनी थी । सफेद चूडीदार पाजामा पहना था तथा मस्तक पर सफेद फेंटा बाँधा था । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनियों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
         
नित्यानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'इस जगत में कितने ही मनुष्यों को स्त्री आदि तत्वों से ऐसा प्रेम होता है कि उनका वियोग होने पर प्राणान्त हो जाता है और कितने ही मनुष्य ऐसे हैं जिन्हे स्त्री आदि से साधारण प्रेम है। अतः उनके वियोग से उनका प्राणान्त नहीं होता है । इस प्रकार दो तरह के जीव है जो संसार में ऐसा हेत करते हैं । वैसे ही इन प्रेमकर्ताओं को भगवान मिल जाय और वे उनमें भी वैसे ही लीन हो जायें कि भगवान का वियोग होने पर उनका प्राणान्त हो जाय । जिन्हें संसार में साधारण प्रेम होता है उन्हें यदि भगवान मिल जायें तो उनके साथ भी साधारण हेत होता है । दो प्रकार के इन मनुष्यों में कर्म द्वारा भेद है या यह दो प्रकार के जीव अनादि काल से ही चले आ रहे हैं ?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'यह भेद स्वाभाविक नहीं है । वह तो कर्म द्वारा होता है । जब जीव कर्म करता है तब उसकी वृत्ति का वेग तीन प्रकार से होता है । इनमें से पहला मंद वेग, दूसरा मध्यम वेग और तीसरा तीव्र वेग है । इनमें से जिस वेग द्वारा उसकी वृत्ति पदार्थों में लग जाती है तब उस पर उसी प्रकार का कर्म लागू हो जाता है और उस कर्म द्वारा स्नेह के भी तीन प्रकार होते हैं ।'
         
नित्यानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'वृत्ति के बेग में ये तीन प्रकार हुए वे गुण द्वारा हुए या अन्य हेतु से हुए ?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'ये तीन प्रकार के भेद गुण द्वारा नहीं हुए वे तो केवल जिस पदार्थ में इन्द्रियाँ प्रवृत्त रहती हैं, तब मन्द वेग होता है तब पदार्थ में प्रवृत्त में मन सहित इन्द्रियाँ लग जाती है तब मध्यम वेग होता है और जब इन्द्रियाँ, मन तथा जीव साथ मिलकर पदार्थ में प्रवृत्त हो जाते हैं, तब उस वृत्ति का तीव्र वेग हो जाता है । यदि तीव्र वेग चक्षु इन्द्रिय से सम्बन्धित हो तो अन्य इन्द्रियाँ भी उसकी अनुगामी होती हैं और समस्त इन्द्रियों में वेग की तीव्रता आ जाती है । इस तरह से जिस जिस इन्द्रियों में मुख्यतः तीव्र वेग होता है तब अन्य इन्द्रियाँ भी उसकी अनुगामी हो जाती हैं । यह तीव्र वेग रजोगुण, सत्वगुण और तमोगुण वाले व्यक्तियों की इन्द्रियों पर लागु होता है । एक-एक इन्द्रिय में तो सबको तीव्र वेग होता है और उसके अनुसार पदार्थ में स्नेह  होता है ।
         
नित्यानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'जीव को भगवान में तीव्र वेग द्वारा स्नेह क्यों नहीं होता ?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'देश, काल, क्रिया, ध्यान, शास्त्र, दीक्षा, मंत्र तथा संग द्वारा शुभ तथा अशुभ आचरण होता है । यदि शुभ देश, काल तथा संग आदि प्राप्त हो तो भगवान से भी तीव्र वेग से स्नेह हो जाता है । यदि अशुभ देशादि का योग हुआ तो भगवान को छोडकर अन्य सभी पदार्थों से प्रीति हो जाती है ।'
         
चैतन्यानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'यदि काल विषम हो तो क्या किया जाय ?' श्रीजी महाराज बोले कि - 'जब जिस स्थल में काल की विषमता रहे तब उस स्थल से दूसरे स्थल पर चले जाना चाहिए । परन्तु विषम काल में नहीं रहना चाहिए । काल तो सत्ययुग, त्रेता, द्वापर तथा काल रुप द्वारा बाहर रहता है और अन्तःकरण में भी उसकी स्थिति रहती है । जब हृदय में कलि व्याप्त हो तब भगवान की मूर्ति को हृदय में धारण नहीं करना चाहिए । उस समय तो बाहर नेत्र के आगे धारण करना चाहिए ।'
         
मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'जिसके हृदय में मन्द वेग, मध्यम वेग और तीव्र वेग है इसकी जानकारी कैसे हो सकती है ?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जब मन्द वेग रहता है तब बालिका युवती तथा वृद्ध स्त्री इन तीनों को देखकर एक समान भाव रहता है । क्योंकि वहाँ अकेले इन्द्रिय की ही वृत्ति होती है अतः उसमें मन्द वेग होता है । जब इन्द्रिय में मन मिल जाता है तब इन तीनों प्रकार की स्त्रियों को देखकर बालिका और वृद्धा स्त्री के सम्बन्ध में अशुभ संकल्प नहीं होता किन्तु युवती के प्रति उसका संकल्प बुरा होता है और विकार आ जाता है । उसे मध्यम वेग कहते हैं । जब इन्द्रिय में मन तथा जीव एक साथ मिलकर इन तीन प्रकार की स्त्रियों को देखते हैं तब उनके हृदय में उसके प्रति अशुभ संकल्प होते हैं तथा विकार आ जाता है, तब उस समय अपनी माँ, बहन को देखकर भी विकार उत्पन्न होता है तब उस स्थिति को तीव्र विकार कहते है ।'
         
ब्रह्मानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'तीनों प्रकार की स्त्रियों को देखकर व्यक्ति को रुप-कुरुप भी ज्ञात हो जाता है परन्तु विकार न हो तो उसे कौन सा वेग जानना चाहिए ?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिस पदार्थ को अत्यन्त दुःखदायी जानकार मनन हुआ हो तो उसके द्वारा उस पदार्थ में अत्यन्त दोष होने के बाद वह दोष मानसिक विचारों द्वारा जीव में प्रवेश करता है और जीव से दूर रहनेवाले साक्षी द्वारा उस दोष को प्रमाणित कर दिया जाता है तब उस दोष की अति दृढता हो जाती है । इस प्रकार पदार्थ में जब इन्द्रिय की वृत्ति पहुँचती है तब उस वृत्ति के साथ साथ मन और जीव दोनों आ जाते हैं । जीव में दोष की अत्यन्त दृढता रहती है । अतः उस दोष का प्रभाव मन और इन्द्रियों पर पडता है । अतः वह पदार्थ यथार्थ रुप से दिखता है और उसकी जानकारी भी मिल जाती है । परन्तु उसका अत्यन्त अभाव आ जाता है । जैसे दूध में मिश्री मिली किसी पात्र में कोई साप अपनी लार डाल दे और उसमें लार डालते हुए देख लिया जाय तो भी वह दूध पहले जैसा दिखायी दे रहा था वैसा ही दिखायी देगा । परन्तु हृदय में उसका अभाव आ जायगा । क्योंकि उसे पता चल गया है कि 'इसे जो पीयेगा उसका तत्काल प्राण नाश हो जायगा ।'
         
इसी तरह से जो पुरुष यह समझ लेता है कि - 'रुपवती स्त्री कल्याण मार्ग में बाधक है और इस लोक तथा परलोक में यह परम दुःख दायी है । स्त्री की प्राप्ति तो मुझे पशु आदि के रुप में जन्म लेने पर अनेक बार हो चुकी है । यदि मैं अब भी परमेश्वर का भजन नहग करुगा तो कई जन्म लेने पडेगे और उनमें अनेक स्त्रियों की प्राप्ति दुर्लभ नहीं होगी । परन्तु भगवान और भगवान के सन्त का संग महादुर्लभ है और उस दुर्लभ वस्तु की प्राप्ति में स्त्री ही विघ्नरुप है । उसके हृदय में यह जानकर दोष की दृढता हुई है तो उसके परिणाम स्वरुप चाहे कितने भी स्वरुपवान स्त्री क्यों न दिखायी दे तो भी मनोविकार नहीं उत्पन्न होता है । इस विषय में अविकारी होने का दूसरा भी कारण है वह यह कि जनक विदेही जैसे भगवान के महान भक्त राजा थे, जो राज्य में रहकर रमणीय पंचविषयों का उपभोग करते हुए भी ज्ञान की दृढता से निर्विकार बने रहे । अतः जनक के समान ज्ञानी पुरुष यह विचार करे कि - 'मैं आत्मा हूँ, शुद्ध हूँ, चेतन हूँ, निर्विकार हूँ, सुखरुप हूँ तथा अविनाशी हूँ परन्तु स्त्री आदि का सम्बन्ध तो  दुःखदायी है, तुच्छ है, जड है तथा नाशवान है ।' इस तरह से विचार करके वह अपने आत्मस्वरुप को ही सुख मानता है । वह यह भी जानता है कि शब्दादि विषयों में सुख लगता है और अच्छा लगता है वह तो आत्मा द्वारा प्रतीत होता है और जब आत्मा देह से निकल जाती है तब सुखरुप वस्तु भी दुख रुप हो जाती है । इस तरह से आत्मा के विषय में विचार करना चाहिए । आत्मा से परे परमात्मा के सम्बन्ध में भी यही विचार करना चाहिए कि - माया से परे शुद्ध आत्मा का ऐसा ज्ञान प्राप्त किया है जो मुझे सन्त के प्रताप से मिला है और वह सन्त परमेश्वर का भक्त है और परमेश्वर तो सर्वात्मा ब्रह्म की भी आत्मा है। वे अक्षर तथा अनन्त कोटि मुक्तों की भी आत्मा हैं । ऐसे परब्रह्म परमात्मा नारायण का ब्रह्मरुप दास मै हूँ ।
         
उसे भगवान की महिमा को ऐसे समझना चाहिए कि - 'द्युपतय एव ते न ययुरन्तमनन्त तया त्वमपि ।' इत्यादि श्रुतियों ने भगवान की महिमा का अत्यधिक प्रतिपादन किया है । इस तरह से जिसे अपने स्वरुप और परब्रह्म के स्वरुप का ज्ञान है उसे चाहे कैसे भी विषय प्राप्त हों तो भी उसका मन लेशमात्र भी विकार को नहीं प्राप्त करता है । जो शब्दादि विषय ग्रहण करने योग्य हों उन्हें ग्रहण करना चाहिए । परन्तु विषयों के आधीन नहीं रहना चाहिए । उन्हें स्वतन्त्र रुप से ग्रहण करना चाहिए । जैसे मकडी अपनी लार को फैलाकर पुनः स्वतन्त्र रुप से स्वेच्छा से निगल लेती है । वैसे ही ऐसा ज्ञानी भी अपनी इन्द्रियों की वृत्तियों को विषयों में फैलाकर पुनः स्वतन्त्र पूर्वक समेट लेते हैं । ऐसे पुरुष राज्य में रहने पर भी वनवासी के समान रहता है और वन में होने पर भी उसे राज्य से बढकर आनन्द मिलता है ऐसा ज्ञानी पुरुष भले ही राज्य में रहे और हजारों मनुष्य उसकी आज्ञा में रहे हों, समृद्धशाली हो उससे वह यह नहीं मानता कि मैं बहुत बडा आदमी हो गया हूँ । यदि उस राज्य का नाश हो जाय और हाथ में मिट्टी का पात्र लेकर घर-घर जाकर भीख माँग कर अपनी उदर पूर्ति करनी पडे तो भी वह ऐसा नहीं समझता कि अब मैं गरीब हो गया हूँ । क्योंकि वह तो अपने मस्ती में अलमस्त रहता है । वास्तव में उसने अपने स्वरुप तथा भगवान के स्वरुप की महिमा को समझा है । अतः वह सोना, कूडा, लोहा और पाषाण में समान बुद्धि रखता है । मान-अपमान में भी समभाव रखता है । ऐसे ज्ञानी को कोई भी पदार्थ बन्धन में नहीं रखता है । क्योंकि उसकी दृष्टि विशाल हो जाती है और वह समस्त मायिक पदार्थों को तुच्छ मानता है । जैसे कोई पुरुष पहले कंगाल रहा हो और बाद में उसे राज्य मिले तब उसकी दृष्टि बडी हो जाती है । तब वह यह सब भूल जाता है कि वह कभी लकडी के गठ्ठर बेचा करता था तथा अन्य तुच्छ काम करता था । वे सब बाते भूलकर वह राज्य सम्बन्धी बडे बडे कार्य करने लगता है । वैसे ही ऐसे ज्ञानी पुरुष को सभी पदार्थ तुच्छ प्रतीत होते हैं । क्योंकि ज्ञान द्वारा उसकीविशाल द्रष्टि हो जाती है । ऐसा जिसने समझा है वही सुखी है । जो विश्वासी हो और ऐसा समझता हो कि - ऐसे महान सन्त तथा भगवान जो उपदेश देते हैं वे यथार्थ है । इसमें कोई शंका नहीं है ऐसा समझकर वह भगवान तथा सन्त जैसा कहे वैसा करने लगे । इस तरह से वे दोनों की पुरुष सुखी हैं । अन्य सुखी नहीं है - यहाँ एक श्लोक है -

यश्च मूढ तमो लोके यश्च बुद्धेः परं गत ।
तावुभौ सुखमेंधेते क्लिश्यत्यन्तरितो जनः ।।
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्ज रसो।प्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते ।।
         
इस प्रकार की जिसकी अलौकिक दृष्टि होती है उसे परमेश्वर के बिना समस्त पदार्थ तुच्छ हो जाते हैं । इन दोनों श्लोकों का एक समान भाव है ।
         
मुक्तानन्द स्वामी ने श्रीजी महाराज से कहा कि - 'हे महाराज ! अब आप जो प्रश्न पूछ रहे थे पूछिए ।' तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'माया में केवल दुःख है कि'  सुख भी कुछ है ?' यह प्रश्न है, तब मुक्तानन्द स्वामी ने कहा कि - 'माया तो केवल दुःखदायी है ।' श्रीजी महाराज बोले कि - माया में से उत्पन्न सत्व, रज और तम इन तीनों गुणों में जो सत्व है वह सुखरुप कहा गया है । श्रीमद् भागवत में कहा गया है कि - 'सत्त्वं यद् ब्रह्मदर्शनम्' तथा सत्व गुण की सम्पत्ति ज्ञान, वैराग्य, विवेक शमदमादिक हैं । ऐसी जो माया है, तो कैसे दुःखरुप है ?
         
श्रीमद्  भागवत के एकादश स्कन्ध में कहा गया है -

विद्याविद्ये मम तनू विद्धयुद्धव ! शरीरिणाम् ।
बंधमोक्षकरी आद्ये मायया में विनिर्मिते ।।
         
अतः मोक्षदायी माया किस प्रकार से दुःखदायी हो सकती है ? इस प्रश्न को सुनकर मुक्तानन्द स्वामी आदि समस्त परमहंस बोले कि - 'हे महाराज! इसका उत्तर हमलोगों से नहीं हो पायेगा । इसका उत्तर तो कृपा करके आप ही करें ।' तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'जैसे यमराजा का रुप पापी जीवों को अति भयानक, विकराल दिखायी पडता है तथा बडे बडे दाँत और बडा मुख काजल जैसा काला, पर्वत के समान बडा और काल जैसा भयानक एवं दुःखरुपी दिखायी पडता है । किन्तु पुण्यवान जीवों को यमराज का स्वरुप अत्यन्त सुखदायी, विष्णु के समान लगता है । वैसे ही माया भी भगवान से विमुख रहनेवाले जीवों के लिए अति बन्धनकारी तथा अत्यन्त दुःखदायी है । भगवान के भक्तों के लिए वह माया अत्यन्त सुखदायी है । माया के कार्यरुप जो इन्द्रियाँ अन्तःकरण और देवता हैं वे समस्त भगवान की भक्ति को अतिपुष्ट करते हैं । अतः भगवान के भक्त को माया दुःखदायी नहीं है, परन्तु परम सुखदायी है ।'
         
मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'माया सुखदायी है तब जब परमेश्वर का भक्त भगवान की मूर्ति को हृदय में धारण करके भजन करने बैठता है तब वह अन्तकरण रुपी माया संकल्प - विकल्प द्वारा दुःख क्यों देती है ?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसने भगवान की महिमा अच्छी तरह से समझ कर भगवान का दृढ आश्रय किया हो उसको तो अन्तःकरण रुपी माया दुःख नहीं देती है । जिसे ऐसे आश्रय में फर्क हो उसे यह माया दुःख देती है । जैसे अपरिपक्व सत्संगी हो तो उसे कुसंगी, पुरुष पतन की और ले जाने का आग्रह करता है परन्तु जो परिपक्व सत्संगी हो उसे गिराने के लिए कोई लाल नहीं रखता और उसके सुनते कोई भी पुरुष सत्संग का गौण नहग बता सकता।  उसी तरह से जिसे ऐसा परिपक्व परमेश्वर का आश्रय हो उसे गिराने का लालच अन्तःकरण रुपी माया नहीं रखती । वह तो उसकी भक्ति में पुष्टि ही करती है, जिसके जीव में वैसा आश्रय ग्रहण करने में कुछ अपरिपक्वता रह गयी हो उसी को वह माया डगमगा देती है और दुःख भी देती है । जब वही जीव भगवान का परिपक्वरुप से आश्रय कर लेगा तब उसे गिराने और पीडित करने में समर्थ नहीं हो पायेगी । अतः इसका उत्तर यह है कि - जिसे भगवान का परिपक्व निश्चय है उसे माया किसी भी तरह से दुःख देने में समर्थ नहीं होती है ।'
                         
इति वचनामृतमप ।।१०।। ।। ११८ ।।