वचनामृतम् ८

संवत् १८ के मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन रात्रि के समय श्रीजी महाराज गाम श्रीलोया में सुराभक्त के दरबार में विराजमान थे और श्वेत फेंटा मस्तक पर बाँधा था । श्वेत छींट की बगल बंडी पहनी थी । श्वेत खेस ओढा था और अपने मुखारविन्द के समक्ष परमहंस तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा में बैठे थे ।
         
श्रीजी महाराज से उस समय मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'जो भोला हो उसको तो किसी सन्त के स्वभाव को देखकर अवगुण आये परन्तु जो बुद्धिमान है उसे सन्त का वगुण क्यों आता है ?'
         
तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'जो बुद्धिमान हो उसको अपने में जो कोई अयोग्य स्वभाव देखने में आये हों उस पर स्वयं अति दोष बुद्धि रखकर द्वेष सहित उस स्वभाव को टालने के लिए प्रयत्न करता है । तथा उस स्वभाव से स्वयं पर अति चिढ हो और वही स्वभाव यदि किसी दूसरे सन्त में दिख जाय तब उसका अभाव आ जाता है । जो मूर्ख होते हैं वे अपने स्वभाव को टालते नहीं और दूसरे सन्त में कोई ऐसा स्वभाव देखे तो उसका अवगुण लेते हैं । इसको मूर्ख कहते हैं ।
         
इसके बाद श्रीजी महाराज ने छोटे-छोटे परमहंसों को बुलवाकर उन्हें स्वयं प्रश्न सिखाने लगे और स्वयं उत्तर भी करने लगे । प्रथम तो उन्होंने यह प्रश्न पूछा कि - काम, क्रोध और लोभ आदि शत्रु का वेग, उसकी तीव्रता तथा मंदता ये बाल्य, यौवन और वृद्धता के अनुसार है ? किस प्रकार है ? बाल्यावस्था में मन्दवेग हो और यौवन अवस्था में तीव्र वेग हो और वृद्ध अवस्था में मन्द वेग हो जाय । इस प्रकार कामादिक की तीव्र मन्दता है । यह मालूम होता है। परन्तु विचार द्वारा मन्दता है या नहीं ? तब इसका उत्तर भी स्वयं किया कि विचार द्वारा भी कामादिक की मन्दता है । वह विचार कैसे करे तो बाल्यावस्था में मन्दता है, यौवन अवस्था में तीव्रता है और वृद्धावस्था में पुनः मन्दता है, वह तो आहार द्वारा है, जैसे बाल्यावस्था में आहार थोडा है अतः काम भी कम है । और वृद्धावस्था में भी आहार कम होता है अतः काम भी कम होता है और यौवनास्था में आहार की वृद्धि रहती है अतः काम की भी वृद्धि रहती है। अतः यौवन अवस्था में आहार कम करें और शरीर द्वारा शीत, उष्ण, वर्षा, भूख इनको ज्ञानपूर्वक सहन करें । ऐसा जो विचार रखें तथा बडे सन्तों का समागम करें तो यौवन अवस्था में भी काम मन्द हो जायेगा ।
         
श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'जीव को अनेक प्रकार के व्यसन लगते हैं किसी को भांग का, अफीम का, दारु का, गांजा का इत्यादि अनेक प्रकार के पडते हैं । वे व्यसन क्रियमाण है या प्रारब्ध द्वारा है ? तब उसका उत्तर भी स्वयं किया कि - 'वह व्यसन तो करने से होते हैं । प्रारब्ध द्वारा नहीं। अतः यदि उन व्यसनों को टालने का श्रद्धापूर्वक प्रयास करें और शूरवीरता हो तो टल जाय परन्तु श्रद्धा न हो और ढीला हो उससे वह स्वभाव नहीं टलता ।'
         
श्रीजी महाराज ने पुनः प्रश्न पूछा कि - 'कितने बालकों को तो वृद्ध के समान प्रकृति होती है और कितने तो चंचल प्रकृति के होते हैं । वे संग द्वारा होते हैं ? या उसके जीव में ही ऐसी प्रकृति रही है ? इसका उत्तर भी उन्होंने स्वयं दिया कि - अक्सर संग द्वारा ही अच्छी-बूरी प्रकृति होती है और कितने लोगों को पूर्व कर्मानुसार भी होती है ।'
         
तब कपिलेश्वरानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'हे महाराज ! पूर्वजन्म का स्वभाव हो वह कैसे जाना जा सकता है और अभी का स्वभाव हो तो कैसे जानना चाहिए ?'
         
श्रीजी महाराज ने कहा कि - 'जो स्वभाव अभी का है वह तो अच्छे सन्त के संग में रहकर उसे मिटाने का थोडा-सा उपाय करने पर मिट जाता है। जैसे मुंडेर पर तृण उग आयी हो और पाँच दिन वर्षा न हो तो सुख जाती है। वैसे ही अभी का स्वभाव थोडे दिनों में ही टल जाता है । किन्तु पूर्व जन्म के स्वभाव को मिटाने के लिए अत्यन्त परिश्रम करना पडता है । तब बडी मुश्किल से वह मिट पाता है । जिस प्रकार धरती में स्थित दुबा के पौधों या छोटे बेर के वृक्षों को किसान आग लगाकर जलाये तो भी वे फिर से अंकुरित हो जाते हैं । यदि उसे कुदाली लेकर जड से ही खोद डालें तब वे बिलकुल नष्ट हो जाते हैं । उसी प्रकार पूर्व का स्वभाव अच्छे सन्त के सत्संग में रहने तथा अत्यन्त प्रयास करने पर बडी कठिनाई से टल पाता है ।'
         
श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'जिसकी इन्द्रियाँ चंचल हों उस चंचलता को दूर करने का कौन-कौन से उपाय है ?' तब उसका उत्तर भी उन्होंने स्वयं किया कि - 'चक्षु-इन्द्रिय की चंचलता को टालने का उपाय यह है कि नासिका के अग्र भाग पर दृष्टि रखे और अपने अगल-बगल में नहीं देखना  चाहिए । अध्ययन करना हो तो वह करना चाहिए । तथा भजन-स्मरण भी करते रहना चाहिए । ऐसा करने पर भी यदि स्त्री आदि पर नजर पडे तो अनुचित संकल्प  न होने पर भी नेत्रों को खुला रखकर अपलक देखते रहना चाहिए और आँखों में अच्छी तरह जलन हो तथा अश्रुधारा निकले तब तक घडी दो घडी तक यही क्रम जारी रखना चाहिए । तब उसकी चंचल दृष्टि भी वश में हो जाएगी । यदि नासिका इन्द्रिय को किसी के शरीर अथवा मुख या वस्त्र से आनेवाली दुर्गन्ध सह्य न हो तो उस समय उसे ऐसा विचार करना चाहिए कि 'मेरा शरीर ऊपर से तो अच्छा है परन्तु उसके भीतर रुधिर, मांस तथा हड्डियाँ भरी हुई हैं । तथा पेट में मल, मूत्र आंतें हैं ।' ऐसा विचार करने से नासिका की चंचलता मिट जाती है । कान की चंचलता टालने का उपाय तो यह है कि कही हंसी मजाक होता हो और भवाई होती हो तो उसमें मन लगता हो, और भगवान की कथा-कीर्तन सुनने में निद्रा आने पर खडा हो जाना चाहिए । निद्रा और आलस्य का त्याग करके भगवान की कथा सुनने में श्रद्धा और प्रेम रखना चाहिए । तब कर्णेन्द्रिय पर विजय प्राप्त की जा सकती है ।'
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त्वचा इन्द्रिय पर विजय प्राप्त करने का उपाय यह है कि जान बूझकर जाडा, गर्मी और वर्षा को सहन करना चाहिए । रजाई को सिरहाने रखना चाहिए और खूब ठंडक लगे तब ओढना चाहिए और जहाँ-तहाँ पडा रहना चाहिए । इस प्रकार करने से त्वचा इन्द्रिय की चंचलता मिट जाती है ।
         
हाथ की चंचलता टालने का उपाय यह है कि जब हाथ खाली हो तब हाथ में माला लेकर श्वासोच्छवास से भगवान का नाम लेकर माला फेरनी चाहिए। परन्तु तेजी से उपेक्षा पूर्वक माला नहीं फेरनी चाहिए । कितने लोग ऐसा कहते हैं कि मन से अधिक नामोच्चार किया जाता है यह बात गलत है । जितना   नामोच्चार जीभ द्वारा किया जाता है उतने ही नाम मन द्वारा लिए जाते हैं । इस तरह का आचरण करने से हाथ की चंचलता दूर होती जाती है ।
         
यदि पैर चंचल हो तो स्थिर आसन पर बैठने से पैर जीत लिया जा सकता है । शिश्न की चंचलता दूर करने के लिए जैसे खुजली और लाल दाद को खुजलाने से खून निकलता है किन्तु खुजली मिटती नहीं है और यदि उसे खुजलाया न जाय तो अपने आप मिट जाती है । उसी तरह से शिन इन्द्रिय में खुजलाहट होने पर भी हाथ से उसे बिलकुल नहीं छूना चाहिए । यदि शिश्न में वायु भर जाती हो तो आहार कम कर देना चाहिए । व्रत करना चाहिए तथा देह को बलहीन कर डालना चाहिए । इस तरह से शिश्न जीता जाता है ।
         
जिव्हा इन्द्रिय को जीतना हो तो जो वस्तु जीभ को स्वादिष्ट लगती हो वह उसे नहीं देनी चाहिए और आहार को कम करना चाहिए तो जिव्हा की चंचलता मिटती है । वाणी चंचल हो तो उसे टालने का उपाय यह है कि मुक्तानन्द स्वामी जैसे वार्ता करते हों तथा कथा करते हों तो बीच में अपनी बुद्धि का प्रदर्शन करने के लिए नहीं बोलना चाहिए । यदि बीच में बोल दिया हो तो पच्चीस माला फेरनी चाहिए । ऐसा करने से वाणी की चंचलता मिट जाती है।' श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'ऐसी कौनसी इन्द्रिय है जिसे परिपक्व रुप से जीतने से समस्त इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की जा सकती है ?' इसका उत्तर भी उन्होंने स्वयं दिया कि जिव्हा को यदि परिपक्वता पूर्वक जीत लिया गया हो तो अन्य समस्त इन्द्रियाँ भी जीती जा सकती हैं ।
         
श्रीजी महाराज ने प्रश्न किया कि - 'जिस पुरुष में काम-वासना व्याप्त हो उसे बाहर से कैसे पहचाना जाय कि - इसमें काम वासना व्याप्त है ? क्योंकि उसकी इन्द्रिया तो वस्त्र में ढकी रहती है इसका उत्तर भी उन्होंने स्वयं किया कि जिसमें काम-वासना व्याप्त हो चुकी हो उसकी नेत्रेन्द्रिय आदि समस्त इन्द्रिया चंचल होती है । तब ऐसा जानना चाहिए कि यह पुरुष कामुक हो गया है ।
         
श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'जिसका स्वभाव चंचल हो उसका शान्त होना तथा जिसका शान्त स्वभाव हो उसका चंचल हो जाना किस विचार के द्वारा होता है ?' इसका उत्तर भी उन्होंने स्वयं दिया कि जो चंचल होता है वह यह विचार करता है कि 'मैं आत्मा हूँ ब्रह्म हूँ तथा अलिंग हूँ तथा आकाश के समान स्थिर हूँ । ऐसे विचारों के द्वारा यह उपशमावस्था को प्राप्त होता है। उसके बाद उसकी चंचलता समाप्त हो जाती है और वह शान्त हो जाता है । यदि शान्त स्वभाव वाले चंचल होना है तो उसे भगवान तथा भगवान के भक्त का माहात्म्य जानना चाहिए और माहात्म्य जानने के बाद उसे नव प्रकार की भक्ति करनी चाहिए । भगवान के भक्त की सेवा सुश्रुषा करनी चाहिए । ऐसा करने से उसका चंचल स्वभाव होता है ।'
         
श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'श्रीमद् भागवत आदि जो आठ सत् शास्त्र हैं उनमें सो कोई शास्त्र त्याज्य है या समस्त शास्त्र ग्रहण करने योग्य हैं?' इसका उत्तर उन्होंने ही दिया कि - 'उन समस्त ग्रंथों में अनेक प्रकार के प्रकरण हैं जिनमें उन भक्तों के अंग बताये हैं । अतः ये सभी ग्रहण करने योग्य हैं । परन्तु सभी प्रकरणों में जो प्रकरण अपने अंग से मिलता जुलता हो उसे ग्रहण कर लेना चाहिए और अन्य का त्याग कर देना चाहिए और यह मानना चाहिए कि अन्य प्रकरण भी सच्चे हैं किन्तु वे मेरे लिए नहीं है । अन्य भक्तों के लिए हैं ।'
         
श्रीजी महाराज ने पूछा कि - 'यहाँ आप सब छोटे लडके बैठे हैं जिनमें से किसीको ये सभी सन्त प्रमाणित करते हैं और किसी को नहीं करते । सबकी अवस्था और संग एक सदृश है और भोजन, वस्त्र उपासना शास्त्र उपदेश तथा मन्त्र भी सबके लिए एक समान हैं फिरभी जो न्यूनता और अधिकता रह गयी है उसका क्या कारण है ? जो सन्त हैं वे तो समदृष्टि वाले हैं निष्पक्ष और धर्मात्मा हैं । जो जैसा होता है उसे वैसा कहते हैं । अतः इसका उत्तर करें ।
         
उन्होंने स्वयं इसका उत्तर किया कि - 'सन्त जिसकी प्रशंसा करते हैं उसी को श्रद्धा है तथा धर्म-पालन करने में ही वह आगे बढा हुआ है । उसे सन्त की सेवा करने में तथा भगवान की वार्ता सुनने में भी श्रद्धा है और सन्त में विश्वास है अतः वह आगे बढ जाता है । जो ऐसे सन्त समागम में रहते हुए भी आगे नहीं बढ पाता वह श्रद्धा रहित है ऐसा जानना चाहिए ।'
                        
इति वचनामृतम् ।।८।।   ।। ११६ ।।