वचनामृतम् ७

संवत् १८ के मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की तृतीया के दिन श्रीजी महाराज श्री लोया ग्राम स्थित सुराखाचर के दरबार में पलंग पर विराजमान थे । उनके मस्तक पर सफेद पाग का छोर सुशोभित था । उन्होंने सफेद छींट का बगल बंडी पहनी थी । रुई-भरा श्वेत चूडीदार पाजामा पहना था और सफेद पिछौरी ओढी थी । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनि तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
         
उस समय नित्यानन्द स्वामी ने श्रीजी महाराज को वचनामृतम पुस्तक लाकर दी । इस पुस्तका को देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए और परमहंसों से बोले कि - 'आज तो कुछ कठिन कठिन प्रश्न पूछिये तो बात करे ?' तब मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि श्रुति में कहा गया है कि -
'ऋ ते ज्ञानान्त मुक्तिः ।
तमेव विदित्वातिमृत्यु त्मेति नान्य पन्था विद्यते।यनाय ।।'
         
इन श्रुतियों में यह कहा गया है कि - 'भगवान के स्वरुप का साक्षात ज्ञान होने पर जीव का कल्याण होता है' फिर भी शास्त्रों में कल्याण के लिए जो अन्य साधन बताये गये हैं उनका क्या प्रयोजन है ? क्योंकि कल्याण तो ज्ञान द्वारा ही होता है ?'
         
इस प्रश्न को सुनकर श्रीजी महाराज ने कहा कि - 'ज्ञान तो जानने का नाम है ।' तब नित्यानन्द स्वामी ने आशंका व्यक्त की कि - 'यदि जान लेना ही ज्ञान है तो शास्त्रों द्वारा भगवान को समस्त जगत जानता है परन्तु उसके द्वारा सबका कल्याण नहीं होता ।'
         
तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिस प्रकार शास्त्रों द्वारा भगवान को परोक्ष भाव से जान लेने पर कल्याण नहीं होता वैसे ही भगवान के राम-कृष्ण आदि अवतारों को जिन मनुष्यों ने प्रत्यक्ष देखा है तो क्या उससे उनका कल्याण हुआ है ?'
         
मुक्तानन्द स्वामी ने कहा कि - 'जिसने भगवान को प्रत्यक्ष देखा हो उनका कल्याण जन्मान्तर में हो जाता है । तब श्रीजी महाराज बोले कि जिन भक्तों ने शास्त्रों द्वारा भगवान को जान लिया है उनके माध्यम से ही जन्मान्तर में उसका कल्याण होता है । क्योंकि शास्त्रों द्वारा जिसने भगवान के स्वरुप को जान लिया है उन्हीं को वे नेत्रों द्वारा देखते हैं । जिनके दर्शन नेत्रों द्वारा करते हैं उन्हीं का ज्ञान शास्त्रों द्वारा प्राप्त करते हैं । दोनों का संस्कार बराबर रहता है और दोनों का जन्मान्तर से कल्याण भी एक समान होता है । क्या कथा श्रवण द्वारा भगवान को सुनने में ज्ञान नहीं है ? परन्तु उन्हें तो सुना हुआ ही कहा जायगा। क्या त्वचा द्वारा किये गये स्पर्श में ज्ञान नहीं है ? किन्तु इसके सम्बन्ध में तो यही कहा जायगा कि उसने स्पर्श किया । क्या नेत्रों से देखने में ज्ञान नहीं है? परन्तु इसके लिए तो यही कहा जायगा कि उसने केवल देखा ही है । क्या नासिका द्वार सूंघने में ज्ञान नही हैं ? किन्तु उसे सूंघा हुआ कहा जायगा । क्या जिव्हा द्वरा किए गए वर्णन में ज्ञान नहीं है ? उसे तो वर्णन किया हुआ ही कहा जायगा । इसी प्रकार बाह्य इन्द्रियों द्वारा ज्ञान होता है अन्तःकरण द्वारा जो ज्ञान मिलता है उसे और अन्तःकरण तथा इन्द्रियों से परे जीवसत्ताश्रित अनुभव ज्ञान में से आप किस प्रकार के ज्ञान के लिए कह रहे हैं ? भगवान ने इस जगत की उत्पत्ति के लिए अनिरुद्ध का स्वरुप धारण किया है, जिसमें स्थावर जंगम रुपी विश्व व्यवस्थित रुप से रहा है । वे संकर्षणरुप से जगत का संहार करते हैं और प्रद्युम्न रुप द्वारा जगत की स्थिति का निर्धारण करते हैं और मच्छकच्छादि रुपों में उनका अवतार होता है । इस प्रकार से जहाँ जैसा कार्य होता है वहाँ उसकी सिद्धि के लिए वैसा स्वरुप ग्रण करते हैं । इसके कुछ कार्य तो ऐसे होते है कि जहाँ इन्द्रिया और अन्तःकरण नहीं पहुँच पाते वहाँ केवल अनुभव ज्ञान द्वारा ही पता चलता है । वहाँ उस कार्य की सिद्धि के लिए भगवान भी वैसा स्वरुप धारण करते हैं । अतः आप भगवान के किस स्वरुप के ज्ञान द्वारा कल्याण होने की बात पूछते हैं ?'
         
नित्यानन्द स्वामी ने कहा कि - 'भगवान के जिस स्वरुप में इन्द्रिया, अन्तःकरण तथा अनुभव की पहुँच हो जाती है तब भगवान के उस स्वरुप का ज्ञान होने के पश्चात मोक्ष होता है हम ऐसा कहते हैं ।'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'ऐसे भगवान तो श्रीकृष्ण है । वे स्वयं अपने लिए कहते हैं -

''यस्मात्क्षरमतीतो।हमक्षरादपि चोत्तमः ।
अतो।स्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ।।
विष्टम्याहमिदं कृतस्नमेकांशेन स्थितो जगत् ।
मत्तः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय ।।
मयिसर्वमिदम्प्रोतं, सूत्रे मणिगणा इव ।।
पश्य मे पार्थ ! रुपाणि शतशो।थ सहस्त्रशः ।
नानविद्यानि दिव्यानी नानावर्णाकृतीनि च ।।''
         
इस प्रकार के वचनों द्वारा वे स्वयं को इन्द्रियों और अन्तःकरण से अगोचर  बताते हैं । अतः भगवान को तत्वतः समझने का यही मार्ग है कि जो पुरुष इन्द्रियों, अन्तःकरण तथा अनुभव द्वारा प्रत्यक्ष भगवान को यथार्थ रुप से जान लेता है । वही पूर्ण ज्ञानी होता है । यदि इन तीन प्रकारों में से एक भी प्रकार कम हो तो वह आत्यान्तिक ज्ञान नहीं कहलाता है और उससे वह जन्म मृत्यु की सीमा को भी पार नहीं कर पाता है । यदि वह किसी साधन द्वारा ब्रह्मस्वरुप  को प्राप्त कर ले तो भी प्रत्यक्ष भगवान को इस प्रकार से न जानना हो तो भी वह पूरा ज्ञानी नहीं कहा जा सकता । श्रीमद् भागवत में कहा गया है कि -
'नैष्कर्म्यमत्त्यच्युतभाववर्जितम् न शोभते ज्ञानमलंनिरन्जनम् ।''
         
तथा गीता में कहा है -

''कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यम्, बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यम्, गहना कर्मणो गतिः ।।''
         
अकर्म ज्ञान के विषय में भी जानना शेष रहा है अर्थात् ब्रह्मरुप होनेवाले के लिए भी परब्रह्म पुरुषोत्तम से सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त करना शेष रहा है । वह भक्ति क्या है । जैसे श्वेतद्वीपवासी निरन्नमुक्त ब्रह्मरुप होकर चन्दनपुष्पादि नाना प्रकार की पूजा सामग्री द्वारा वासुदेव की पूजा करते हैं । वैसे ही उसे भी ब्रह्मरुप होकर चन्दन पुष्पों तथा श्रवणमनन आदि द्वारा प्रत्यक्ष भगवान की भक्ति करनी चाहिए । गीता में भगवान ने कहा है -
''ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा, न शोचति न कांक्षति ।
समः सर्वेषु भूतेषु, भद्भकिं लभते पराम् ।।''
         
जो भक्त  ब्रह्मरुप होकर परब्रह्म की भक्ति नहीं करता है तो उसका  आत्यान्तिक कल्याण नहीं होता ।

''भूमिरापो।नलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।।''
         
यह व्याप्त ऐसी जड प्रकृति है और -

''अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महाबाहो ! ययेदं घार्यंते जगत् ।।''
         
यह व्यापक ऐसी चैतन्य प्रकृति है और प्रत्यक्ष भगवान तो कैसे हैं ? वे आठ प्रकार की व्यावल्य प्रकृति और उसमें व्यापक चैतन्य प्रकृति इन दोनों के आधार हैं । जैसे आकाश पृथ्वी आदि चार तत्वों का आधार हैं और जब पृथ्वी की संकोच अवस्था होती है तब उसके साथ साथ आकाश की भी संकोच अवस्था होती है । जब पृथ्वी की विकास अवस्था होती है तब आकाश की विकास अवस्था होती है । इस तरह से जल तेज वायु की संकोच विकास अवस्था के साथ ही आकाश की भी संकोच और विकास अवस्था होती है । तथा पृथ्वी आदि तत्वों की संकोच विकासावस्था दोनों आकाश में रहती है । उसी तरह इन दोनों प्रकृतियों की संकोच विकास अवस्था के साथ ही भगवान की भी संकोच विकास ही अवस्था होती है । ऐसे भगवान सबकी आत्मा है । यहाँ श्रुतियों में हैं -
         
'अन्त प्रविष्टः शास्त्रा जनानां सर्वात्मा । यस्याक्षरं शरीरंएष सर्वज्ञाभूतान्त रात्मा।पहतपाप्मा दिव्यो देव एको नारायणः । यस्यात्मा शरीरं। य आत्मानमन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृतः । यस्य पृथ्विी शरीरं । यः पृथिवीमन्तरों यमयति स त आत्मन्तर्याम्यमृतः ।' इत्यादि श्रुतियाँ हैं । ब्रह्म को अन्नमय, मनोमय, विज्ञानमय तथा आनन्दमय कहा गया है । इसी तरह से अनेक प्रकार की ब्रह्म क्रिया कही गयी है, उसका यह तात्पर्य है कि भगवान सबके कारण और आधार हैं । इसलिए इन सबको ब्रह्म कहा गया है । परन्तु वे सब शरीर हैं और इन सबके शरीर भगवान श्रीकृष्ण प्रत्यक्ष पुरुषोत्तम हैं । उन भगवान में यह जड चैतन्यरुपी दोनों प्रकृतियाँ संकोच विकासावस्था द्वारा अपने कार्य सहित सुखपूर्वक रही हैं । इनमें भगवान अर्न्तयामी रुप तथा कारणात्मक  स्वरुप से भी रहे हैं, और वे ही भगवान के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । जो पुरुष इस रीति से महिमा सहित भगवान को जानता और देखता है, उसे ही परिपूर्ण ज्ञान कहते हैं ।
         
मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'इस प्रकार दिखायी न देता हो  और अन्तःकरण में तो दृढ प्रतिबद्धता हो उसे परिपूर्ण ज्ञान कहा जा सकता है या नहीं ?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जैसे अन्धेरे घर में कोठी और खम्भों को देखते हैं फिर भी यथार्थ रुप से देखा हुआ नहीं कहा जायगा । वैसे ही पुरुषोत्तम भगवान में जड, चेतन प्रकृति रही है और उस प्रकृति में वे स्वयं रहे हैं और उसे अनुमान द्वारा जानते हैं । परन्तु वे दिखने में नहीं आते तो देखनेवाले को परिपूर्ण ज्ञानी नहीं कहा जा सकता है । यदि उसकी प्रतिबद्धता यथार्थ है तो उसे कुछ अलौकिकता प्राप्त हुई होगी, नहीं तो उसकी प्रतीति होगी । निःसन्देह ऐसी प्रतिबद्धता है फिर भी दिखायी नहीं पडती तो यह समझे कि इन भगवान में सब कुछ है परन्तु वे मुझे दिखाते नहीं है । उनकी ऐसी ही इच्छा है' ऐसा समझकर भगवान की भक्ति करता हुआ स्वयं को कृतार्थ मानता है उसे तो परिपूर्ण ज्ञानी माना जायगा । जो इन्द्रियों अन्तःकरण और अनुभव इन तीनों प्रकार से भगवान को यथार्थ रुप से जान लेता है उसे ही ज्ञानी कहते हैं । ऐसे ज्ञानी को भगवान ने गीता में श्रेष्ठ कहा है -

'आर्तो जिज्ञासुरथार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ।
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।।''
         
ऐसा ज्ञानी तो सदैव साकारमूर्ति प्रत्यक्ष भगवान की प्रकृति पुरुष एवं अक्षर से परे मानते हुए और सबका कारण तथा आधार जानकर अनन्य भाव से उनकी सेवा करता है । इस प्रकार की समझ को ज्ञान कहते हैं । इस ज्ञान द्वारा आत्यन्तिक मोक्ष होता है । जो ऐसा नहीं समझते और केवल शास्त्र द्वारा  'अहं ब्रह्मास्मि' होकर बैठता है और कहता है कि 'राम कृष्ण आदि मेरी लहर हैं ऐसा जो ब्रह्मकुदाल आधुनिक वेदान्ती हैं, वह तो अति दुष्ट तथा महापापी है और मरकर नर्क में पडता है, और उसका कभी भी छुटकारा नहीं होता है।'
                          
इति वचनामृतम् ।।७।।   ।। ११५ ।।