वचनामृतम् ६

संवत् १८ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के दिन श्रीजी महाराज ग्राम श्रीलोया में सुराखाचर के दरबार में रात्रि के समय विराजमान थे । उन्होंने श्वेत दुपट्टा धारण किया था तथा सफेद छींट की बगल बंडी पहनी थी । श्वेत फेंटा बाँधा था तथा एक अन्य सफेद फेंटा मस्तक से कंठ तक बाँधा था और उस सफेद फेंटे का छोर सिर पर लटक रहा था । उन्होंने शाल ओढी थी । उनके मुखारविन्द के समक्ष परमहंस तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
         
श्रीजी महाराज ने परमहंसों से प्रश्न पूछा कि - 'सत्संग होने के पश्चात दुर्लभ से दुर्लभ साधन कौन सा है ?' इसका उत्तर परमहंसों से नहीं हो पाया। तब श्रीजी महाराज ने उत्तर दिया कि - 'एकान्तिका की भावना आये यह अत्यन्त दुर्लभ है । वह एकान्तिकता क्या है ? तो धर्म, ज्ञान और वैराग्य इन तीनों से युक्त भगवान की भक्ति करता हो उसे एकान्तिकता कहते हैं ।'
         
पुनः श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'धर्म सम्बन्धी साधनों में ऐसा कौन-सा साधन है जिसके रखने पर समस्त धर्म रहते हैं ? भगवान सम्बन्धी भजन, स्मरण, कीर्तन, वार्ता आदि साधनों में से ऐसा एक साधन कौन सा है कि आपत्काल में समस्त साधनों के चले जाने पर भी इस एक साधन के रहने पर सभी साधन बने रहते हैं ?' इस प्रश्न का उत्तर उन्होंने स्वयं ही दिया कि - 'धर्म सम्बन्धी साधनों में यदि एक निष्काम भावना हो तो सभी साधन आ जाते हैं ? भगवान सम्बन्धी साधन में यदि भगवान के स्वरुप का निश्चय रहे तो समस्त साधन अपने आप चले आते हैं ।'
         
श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'कैसी मति एक प्रकार की रखने से कल्याण होता है और उसके विचलित होने पर खराब होता है तथा कैसी बुद्धि से वारंवार हट जाने पर कल्याण होता है और उसके विचलित होने पर खराब होता है ?' श्रीजी महाराज ने इसका उत्तर स्वयं दिया कि - 'भगवान के स्वरुप की निश्चितता वाली मति को कभी भी विचलित नहीं करना चाहिए । भगवान के माहात्म्य को सुनकर उसकी पुष्टि वारंवार करनी चाहिए । इससे व्यक्ति का कल्याण होता है और वारंवार इस मति को बदलने से अशुभ होता है । अपने मन से स्वबुद्धि द्वारा जो निश्चय किया हो कि - 'मुझे ऐसा करना है' उस मति को सन्त के वचन द्वारा वारंवार बदल देना चाहिए यदि सन्त यह कहें कि - 'यहाँ नहीं बैठना चाहिए, यह नहीं करना चाहिए, तो उस स्थान पर नहीं बैठना चाहिए और न वह काम ही करना चाहिए ।  इस तरह से यदि मति को परिवर्तित किया जाय तो कल्याण होता है और यदि मति में परिवर्तन न करे और अपने मन से कोई कार्य करे तो उसका अहित होता है ।'
         
श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'किस प्रकार का सत्संगी अथवा परमहंस हो जो पूर्णतः धर्माचरण करता हो तो उसके पास बैठने और उसकी बात सुनने से दोष लगता है ?' इस प्रश्न का उत्तर उन्होंने स्वयं दिया कि - 'जिसे भगवान के स्वरुप का निश्चय हो और जो धर्माचरण करता हो तो भी यदि उसे व्यावहारिकता में आसक्ति रहती है, देहाभिमानी हो, दम्भी हो वह भगवान और सन्त की टीका टिप्पणी करता हो और दूसरों के सामने भगवान तथा सन्त के विरुद्ध बात करता हो तथा दोष पूर्ण बातों से उसे सन्त और भगवान से विमुख कर देता हो ऐसे व्यक्ति से किसी भी प्रकार से सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए, और यदि कोई रखता है तो उसका अशुभ होता है ।'
         
श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'ऐसा कौन सा साधु है जो धर्माचरण करता हो और भगवान में दृढ निश्चय भी हो तो भी उसके साथ स्नान करने नहीं जाना चाहिए । उसके पास अपना बिस्तर भी नहीं लगाना चाहिए और उसकी बात भी नहीं सुननी चाहिए ?' इस प्रश्न का उत्तर भी उन्होंने स्वयं दिया कि - 'जो सन्त हिम्मत बिना की बात करता हो, क्या एक जन्म में ही निष्कामादि गुण आ जायेंगे ? वह तो भगवान की कृपा से ही आते हैं, नहीं तो अनेक जन्मों में भी क्या कल्याण होता है ? इस प्रकार से जो हिम्मत बिना की बात करता हो उसका समस्त प्रकार से त्याग करना चाहिए । उस सन्त का सर्व प्रकार के संग करना चाहिए जो कहता हो कि - 'इस शरीर से कृतार्थ हो चुके हैं और काम, क्रोध, मद, मत्सर, मान आदि दोषों का क्या सामर्थ्य है ? भगवान और सन्त के प्रताप से इन सबका नाश कर दूँगा,' ऐसा जो कहता हो तथा कामादि
दोषों का नाश करने में तत्पर रहता हो ऐसे सन्त का संग सर्व प्रकार से करना चाहिए ।'
         
श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'किस प्रकार का साधु हिम्मत सहित बात करता हो तो भी उसका त्याग करना चाहिए ?' इसका उत्तर उन्होंने स्वयं किया कि - जो सन्त केवल अपने पुरुषार्थ की ही बातें अधिक करता हो और पुरुषार्थ से ही अपने को कृतार्थ मानता हो और भगवान का भरोसा न रखता हो और यस समझे कि - 'इस साधन द्वारा भगवान को प्रसन्न करना है' उसका भी परित्याग कर देना चाहिए ।'
         
श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'कैसे साधु का संग करना चाहिए तथा किस सन्त का संग नहीं करना चाहिए' इसका उत्तर भी उन्होंने स्वयं दिया कि जो सन्त शुद्धतापूर्वक तथा निश्चयपूर्वक व्रतपालन करता हो, जिसे भगवान के स्वरुप का निश्चय हो फिर भी अपने साथ रहने वाले के दोषों के लिए न टोकता हो और प्यार से रखे, उसके साथ नहीं रहना चाहिए भले ही वह मुक्तानन्द स्वामी के समान व्यवहार में महान कहलाता हो उसका भी संग नहीं करना चाहिए। जो सन्त साथ में रहने पर टोका करे जो स्वभाव देखे उस पर नियंत्रण रख्खे, जब तक वह स्वभाव मिट नहीं जाता तब तक उपदेश देता रहे लेकिन चापलूसी न करे और वह लौकिक व्यवहवर में भले ही महत्वपूर्ण न कहलाता हो तो भी उसका संग करना चाहिए ।'
         
श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'यदि सन्त में भक्ति ज्ञान आदि समस्त अच्छे गुण हों लेकिन एक कौन सा वह खराब दोष हो जिसके कारण उसका संग नहीं करना चाहिए ?'
         
इसका उत्तर भी उन्होंने स्वयं दिया कि - 'जिसे आलस्य बहुत हो और निद्रा बहुत हो और जब कोई उससे स्नान-ध्यानादि नियमों का पालन करने की बात कोई कहे तो वह बोले कि 'अभी कर लूँगा, जल्दी क्या है, धीरे-धीरे होगा' इस प्रकार का सन्त चाहे कितना भी सज्जन हो फिर भी उसका संग नहीं करना चाहिए ।'
         
श्रीजी महाराज ने पुनः प्रश्न पूछा कि - 'वह चाहे कितनी भी अच्छी बात करे तो भी उसकी बात नहीं सुननी चाहिए । ऐसा उसकी वाणी में कौन सा दोष समझना चाहिए ?' इस प्रश्न का उत्तर भी उन्होंने स्वयं ही दिया कि जो सन्त बात करते समय अपने में स्थित भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और धर्म में  अहंकार पूर्वक अपने को श्रेष्ठ बताये तथा अन्य सन्त के ज्ञान को कुछ कम करके बतावे तो उसकी वाणी में दोष समझना चाहिए तथा उसकी बात भी नहीं सुननी चाहिए ।
         
श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'जिसकी वाणी में कुत्सित भावना हो फिर भी उसका अमृत के समान पान किया जाता है ऐसी कौन सी वाणी है ? इसका भी उत्तर उन्होंने स्वयं दिया कि जो सन्त बात करते समय अपने सम्बन्धी माता-पिता बहन-भाई और अपनी जाति की कुत्सित शब्दों द्वारा निन्दा करता हो तो उसकी उस वाणी को अच्छा मानना चाहिए क्योंकि जो लोग यह वाणी सुनेंगे तब उस सन्त के प्रति गुण आयेगा कि 'इस सन्त को तो अपने दैहिक सम्बन्धियों आदि में हेत नहीं है अतः इस वाणी का अमृत के समान पान करना चाहिए ।'
         
श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'किस जगह पर मान रखना चाहिए और किस जगह मान नहीं रखना चाहिए ?' इस प्रश्न का उत्तर उन्होंने स्वयं किया कि - 'भगवान का दृढ आश्रित हो और वह दीन हरिभक्त हो तो भी उसके आगे मान नहीं रखना चाहिए किन्तु जिसका सत्संग से पैर पीछे हो गया हो उसके सामने तो मान रखना चाहिए । उससे दब नहीं जाना चाहिए और सत्संग की चर्चा होने पर उसका दृढता से प्रतिवाद करना चाहिए ।'
         
श्रीजी महाराज ने पुनः प्रश्न पूछा कि - 'किस स्थान पर हेत रखना चाहिए और किस स्थान पर हेत नहीं रखना चाहिए ?' तब उसका उत्तर भी उन्होंने दिया कि - 'हम समस्त सन्तों से साधारण रुप से कहें कि बुरहानपुर और काशी कौन जायगा ? तब यदि कोई बोले नहीं तो अन्य किसी भी साधु को उस सभा में उठकर हमसे यह कहना चाहिए कि - हे महाराज ! यदि आप कहें तो मई चला जाऊँ ? ऐसा कहकर और हमारी आज्ञा लेकर वहाँ जाना चाहिए । ऐसी जगह पर हमारी प्रसन्नता के लिए हमारे दर्शनादि का हेत नहीं रखना चाहिए । यदि हमने और सन्तों ने किसी को दुःखी होकर डाँटा हो और तिरस्कार करके सत्संग से बाहर निकाल दिया हो और वह दुःखी होकर रोता हो और कोई विमुख व्यक्ति उसके पास आकर सन्त के अथवा हमारे विरुद्ध बातें करता हो तब उस सन्त तथा भगवान के लिए उसे हेत व्यक्त करना चाहिए और कहे कि मैं तो उनको बिक चुका हूँ । अतः वह मेरे टुकडे-टुकडे कर डाले तो भी मैं उनका अवगुण नहीं लूँगा । वे मेरा कल्याण करनेवाले हैं । इस प्रकार वहाँ अति स्नेह प्रकट करना चाहिए ।'
         
और फिर से श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'ऐसी कौन-सी बात है कि जिसके द्वारा भगवान प्रसन्न होते हों तो भी नहीं करना चाहिए और जिस कार्य के करने से भगवान अप्रसन्न होते हों तो भी करना चाहिए ?' उन्होंने इस प्रश्न का उत्तर दिया कि यदि हमारे द्वारा कहे गए वचन में अधर्म की कोई बात प्रतीत होती हो तो उसे मानने में अधिक विलम्ब कर देना चाहिए । जैसे श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन से कहा था कि 'अश्वस्थामा का सिर काट डालो' किन्तु अर्जुन ने वह वचन नहीं माना वैसे ही इस प्रकार के वचनों पर यदि हम प्रसन्न हों तो भी उसका पालन नहीं करना चाहिए । पंचव्रत सम्बन्धी जो नियम है उनमें से किसी का उल्लंघन होता हो तो उसे नहीं मानना चाहिए । इन दोनों वचनों का पालन न करने से भगवान अप्रसन्न होते हों तो उन्हें अप्रसन्न होने देना चाहिए। परन्तु इसके लिए उन्हें प्रसन्न नहीं करना चाहिए ।
         
श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'भगवान का ध्यान करते समय यदि मन में समुद्र की विशाल तरंगों के समान अनेक प्रकार के कुसंकल्पों की तरंगें उठती हों तो उन्हें किस प्रकार दूर करना चाहिए ?'
         
इस प्रश्न का उत्तर भी उन्होंने स्वयं दिया कि - 'जब इस प्रकार के कुसंकल्प होने लगें तब उस ध्यान का त्याग करके और लज्जारहित होकर, ताली बजाकर, मुख द्वारा उच्च स्वर में 'स्वामिनारायण - स्वामिनारायण' भजन करना चाहिए, और है दीनबन्धु ! हे दयासिन्धु ! शब्द बोलते हुए भगवान की प्रार्थना करनी चाहिए । भगवान के जो बडे सन्त मुक्तानन्द आदि उनका नाम लेकर उनकी प्रार्थना करनी चाहिए तो समस्त कुसंकल्प टल जाते हैं और शान्तिी होती है । इसके सिवा कुसंकल्प को टालने का कोई उपाय नहीं है ।'
         
श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'ऐसा कौन सा गुण है कि इस सत्संग में महान गुण प्रतीत होता हो और उसकी सब प्रशंसा करते हो तो भी वह त्याज्य होता है ? कौन सा ऐसा दोष है जो ग्रहण करने योग्य होता है ?'
         
श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'ऐसा कौन सा गुण है कि इस सत्संग में महान गुण प्रतीत होता हो और उसकी सब प्रशंसा करते हों तो भी वह त्याज्य होता है ? कौन सा ऐसा दोष है जो ग्रहण करने योग्य होता है ?'
         
इसका उत्तर भी उन्होंने स्वयं किया कि - 'मुक्तानन्द स्वामी जैसे जब सर्व श्रेष्ठ ढंग से व्रत पालन करते हैं तब उसके कारण अन्य सन्तों को उद्वेग होता है क्योंकि वे उनके समान आचरण नहीं कर पाते हैं । यद्यपि यह गुण महान है फिर भी उसका त्याग करके समस्त सन्तों के साथ समता का व्यवहार करना चाहिए । समतापूर्ण आचरण दोष के समान है तब भी उसका ग्रहण करना चाहिए।
         
श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'सन्त में ऐसा कौन-सा एक दोष हो जिसका त्याग करने से समस्त दोष मात्र टल जाता है और ऐसा कौन सा एक गुण है कि जिसके आने पर समस्त गुण आ जाते हैं ?' इस प्रश्न का उत्तर उन्होंने स्वयं दिया कि - देहाभिमान रुपी जो दोष हैं उसमें समस्त दोषों का समावेश रहता है । अतः उसका त्याग करने से समस्त दोषों का त्याग हो जाता है 'मैं तो देह में भिन्न आत्मा हूँ' ऐसे आत्मनिष्ठारुपी एक गुण के आने से समस्त गुण आ जाते है ।
         
श्रीजी महाराज ने पूछा कि - 'वे पंचविषय कैसे हैं ? जिनका सेवन करने से बुद्धि में प्रकाश होता है और किन पंचविषयों के सेवन से बुद्धि में अहंकार होता है ? इस प्रश्न का उत्तर भी स्वयं किया कि - 'भगवान सम्बन्धी पंचविषयों का सेवन करने से बुद्धि में प्रकाश होता है और जगत सम्बन्धी पंच विषयों के सेवन से बुद्धि में अन्धकार हो जाता है ।'
         
पुनः श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'वह कैसा देश, कैसा काल, कैसा संग और कैसी क्रिया है जिसके साथ सम्बन्ध भगवान की आज्ञा होन पर भी नहीं करना चाहिए ?'
         
इस प्रश्न का उत्तर भी उन्होंने स्वयं दिया - 'जिस देश में रहने पर अपने शरीर के सम्बन्धियों से बार-बार उठने बैठने योग्य का योग होता हो, उस देश में भगवान की आज्ञा से भी नहीं रहना चाहिए । जहाँ हमारे दर्शन होते हों और उसके साथ साथ स्त्रियों के दर्शन होते हों तब ऐसे संग तथा क्रियाओं की स्थिति में यदि हम किसी भक्त को बैठाकर यह बात कहें कि - 'हमारे दर्शन करो' तो भी वहाँ नहीं बैठना चाहिए और कोई भी बहाना करके उस स्थान से उठकर चले जाना चाहिए । जिस काल में विषमता रहती हो और मारपीट होती हो तो उस स्थान पर रुकने की यदि भगवान की आज्ञा हो तो भी वहाँ से चले जाना चाहिए । वहाँ रहकर मार नहीं खानी चाहिए ।'
         
श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'किस शास्त्र को सुनना और पढना चाहिए और किस शास्त्र को न सुनना चाहिए और न पढना चाहिए ?'
         
इसका उत्तर भी उन्होंने स्वयं किया कि - 'जिस शास्त्र में भगवान के साकार रुप का प्रतिपादन न किया गया हा और भगवान के अवतारों का निरुपण भी न हो वे यदि शुद्ध वेदान्त ग्रन्थ हों तथा अद्वितीय निराकार का ब्रह्मरुप से प्रतिपादन किया गया हो और उन ग्रन्थों का निर्माण बुद्धिमान व्यक्ति द्वारा किया गया हो तब भी उन ग्रन्थों को कभी नहीं पढना चाहिए और न सुनना ही चाहिए । यदि रणछोड भक्त जैसे कीर्तन हों तथा उसमें भगवान की मूर्ति का वर्णन किया गया हो तो उनका गान और श्रवण करना चाहिए । इस प्रकार का जो ग्रन्थ हो उसे पढना और सुनना चाहिए ।'

इति वचनामृतम् ।।६।।  ।। ११४ ।।