वचनामृतम् ५

संवत् १८ के कार्तिक कृष्णपक्ष की अमावस्या की रात के समय स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री लोया ग्राम स्थित सुराभक्त के दरबार में विराजमान थे । उन्होंने श्वेत चूडीदार पायजामा पहना था । सफेद छींट की बगलबंडी पहनी थी और मस्तक पर श्वेत पाग बांधी थी । उनके मुखारविन्द के समक्ष परमहंसों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
         
श्रीजी महाराज ने समस्त परमहंसों से प्रश्न पूछा कि - 'कितने संकल्प प्रकट करने पर व्यक्ति निष्कपट कहलाता है और कितने संकल्पों को न कहने पर कपटी कहा जाता है ?' परमहंसों के द्वारा इसका उत्तर न हो सका ।
         
तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'पंचव्रत सम्बन्धी जो कच्चापन हो वह यदि आत्म विचार द्वारा नहीं मिटता हो तो उसे इस प्रकार की बात सन्त के सामने जाकर कहनी चाहिए जिसमें ऐसा कच्चापन न हो । यदि किसी सन्त का अवगुण मन में उत्पन्न हो, गया हो तो उसे भी बता देना चाहिए । भगवान सम्बन्धी निश्चय में भी यदि अनिश्चितता का संकल्प हुआ हो तो भी कहना चाहिए । तब वह निष्कपट भक्त कहलाता है । जिसे इस प्रकार का संकल्प हुआ हो और सन्त के सामने नहीं कहता हो, उसे कपटी समझना चाहिए ।'
         
पुनः श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'ऐसा कपटी हो और बुद्धिमान हो तो उसे किस प्रकार की बुद्धि द्वारा पहचाना जा सकता है ?' इसका भी उत्तर परमहंस न दे सके । तब श्रीजी महाराज बोले - 'इस की पहचान तो इस प्रकार से हो सकती है कि इसका सहवास होने पर खाते-पीते, उठते-बैठते, चलते-फिरते समय स्वयं उस पर नजर रख्खे और अपने से अलग होने पर भी किसी अन्य व्यक्ति के द्वारा गुप्त रुप से उस पर निगरानी रखता रहे तब उसके कपट भाव का पता लग सकता है ।
         
श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'जो व्यक्ति दंभपूर्वक पंचव्रतों का पालन करता है और दंभभाव से भगवान का निश्चय रखता हो स्वयं बुद्धिमान है ऐसा अभिमानी हो, अपने व्रतपालन तथा निश्चय को दूसरे से अत्यधिक            महत्वपूर्ण बताता हो तो उसे ऐसा कैसे समझा जाय कि इसका व्रतपालन और निश्चय दंभपूर्ण हैं ?
         
परमहंस इस प्रश्न का भी उत्तर न दे सके । तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'जब ऐसे व्यक्ति की प्रतिष्ठा का भंग होता है, तब इसकी दम्भ भक्ति का पता लग सकता है, नहीं तो नहीं लगता ।'
         
श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'भगवान सम्बन्धी निश्चय तथा  व्रतपालन इन दोनों में से कैसा संकल्प होने से पतन हो जाता है और कैसा संकल्प होने पर भी पतन नहीं होता ? इसकी अवधि कितनी होती है ? कब तक उस संकल्प के रहने से व्यक्ति धर्मच्युत हो जाता है तथा धर्म और भगवान सम्बन्धी निश्चय में से भी व्यक्ति का पतन हो जाता है ?' इसका भी उत्तर परमहंस न दे सके । तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिस संकल्प को प्रयत्न करने पर भी नहीं टाला जा सकता इस तरह से धर्म पालन करने में कोई अनुचित संकल्प रहता है । वह यदि पन्द्रह दिन या एक महीने तक न रहे और किसी दिन उत्पन्न हो जाय तो वह संकल्प धर्मच्युत कर सकता है । इसी तरह से भगवान के निश्चय में भी जानना चाहिए । जो संकल्प हुआ उसे विचारों द्वारा टाल दिया जाय और वह पुनः उत्पन्न न हो तो ऐसा संकल्प इन दोनों मार्गों से व्यक्ति को नहीं गिरा सकता ।'
         
श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'सत्संग में किसकी स्थिति दृढ रहती है और किसकी नहीं रहती ?' इस प्रश्न का उत्तर भी परमहंस न दे सके । तब श्रीजी महाराज ने उत्तर दिया कि - 'जैसे दत्तात्रेयने पंचभूतों, चन्द्रमा, पशु, वेश्या, कुमारी तथा अपनी देह आदि में से जो गुण ग्रहण किये वैसे ही यदि जिसे सन्त में से गुण ग्रहण करने का स्वभाव न गया हो उसका ही सत्संग में दृढ निश्चय होता है । जिसमें सन्त के गुण ग्रहण करने का स्वभाव नहीं होता तो वह सत्संग में रहते हुए भी सुदृढ नहीं है ।'
         
श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'सन्त, शास्त्र तथा आत्म विचारों के होने पर इन्द्रियों और अन्तःकरण पर विजय प्राप्त किया जा सकता या इनमें से एक भी रहने पर विजय प्राप्त किया जा सकता है ? यदि आप ऐसा कहेंगे कि तीनों बातें इकट्ठी हों तभी इन्हें काबू में रख्खा जा सकता है । तब सन्त के पास से कैसी युक्ति सीखी जानी चाहिए, शास्त्र में तथा आत्मविचार द्वारा कौन-सी युक्ति सीखनी चाहिए यह बताइए ।' परमहंस इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाये तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'शास्त्रों से भगवान तथा सन्त का माहात्म्य समझना चाहिए और सन्त द्वारा शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए । वह इन्द्रियों को जीतने की युक्ति बतावे कि इस तरह नेत्र की दृष्टि नासिका पर रखनी चाहिए और  लौकिक व्यवहार सम्बन्धी वार्ता नहीं सुननी चाहिए' इत्यादि युक्तियाँ सन्त से सिखनी चाहिए । सन्त द्वारा सिखायी गयी युक्ति को अपने विचारों से अपने कल्याण के लिए उचित समझना चाहिए और उसी के अनुसार आचरण करना चाहिए। इस तरह से तीनों उपायों द्वारा इन्द्रियों और अन्तःकरण को जीता जा सकता है।'
         
श्रीजी महाराज ने यह भी प्रश्न पूछा कि - 'इन्द्रियों को जीतने से अन्तःकरण को जीता जा सकता है या अन्तःकरण को जीतने से इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की जा सकती है ?' इस प्रश्न का उत्तर भी परमहंस नहीं कर पाये । तब श्रीजी महाराज ने इसका उत्तर दिया कि - 'बाह्य इन्द्रियों को दैहिक दमन द्वारा जीतने और देहदमन से यदि बाह्य इन्द्रियों को जीत लिया गया हो फिर भी पंचव्रतों का दृढतापूर्वक पालन करना चाहिए । बाह्य इन्द्रियों को जीत लेने पर अन्तःकरण पर विजय प्राप्त की जा सकती है । परन्तु अकेले अन्तःकरण पर जीत होने से बाह्य इन्द्रियों पर विजय नहग मिल सकती है । बाह्य इन्द्रियों को जीतने से अन्तःकरण पर विजय हो सकती है क्योंकि जब बाह्य इन्द्रियों को जीत लिया गया हो तो वह उसे विषयों में जाने का अवसर नहीं देता तब अन्तःकरण आन्तरिक रुप से निराश हो जाता है कि 'इस शरीर से यह बात नहीं बनेगी ।'
         
श्रीजी महाराज ने पुनः प्रश्न पूछा कि - 'बाह्य इन्द्रियों तथा अन्तःकरण को किस प्रकार से जीता जा सकता है ?' इसका उत्तर भी परमहंस नहीं दे पाये तब श्रीजी महाराज ने उत्तर दिया कि - धर्म शास्त्र में त्यागी व्यक्ति के लिए जो नियत बताये गये हैं उनका पालन करना चाहिए । आहार को नियन्त्रित रखना चाहिए । तप्तकृञ्चच्छ चान्द्रायणादि व्रत करना चाहिए तथा जान बूझकर शीत, धूप, भूख, प्यास को सहन करना चाहिए । भगवान की कथा कीर्तन, वार्ता करनी चाहिए । भजन स्मरण में बैठे तब स्थिरता पूर्वक बैठना चाहिए । ऐसे साधनों से बाह्य इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की जा सकती है । भगवान के माहात्म्य का विचार और ध्यान करने तथा आत्मनिष्ठा रखने से अन्तःकरण पर विजय प्राप्त की जा सकती है ।

इति वचनामृतम् ।।५।।  ।। ११३ ।।