संवत् १८ के कार्तिक कृष्णपक्ष की चतुर्थी को एक प्रहर दिन व्यतीत होने के पश्चात स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री लोया ग्राम स्थित भक्त सुराखाचर के दरबार में विराजमान थे । उन्होंने श्वेत चूडीदार पायजामा पहना था। सफेद छींट की बगलबंडी पहनी थी और मस्तक पर श्वेत पाग बाँधी थी । उनके मुखारविन्द के समक्ष परमहंसों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी।
अखंडानन्द स्वामी ने श्रीजी महाराज से प्रश्न पूछा कि - 'इस ब्रह्मांड में भगवान की मूर्ति वर्तमान समय में जैसी दिखायी पडती है वैसी मूर्ति अनन्त कोटि ब्रह्मांडों में दिखायी पडती है या नहीं ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'भगवान स्वयं अपने अक्षरधाम में सदैव विराजमान रहते हैं । मूल माया में से उत्पन्न अनन्त कोटि प्रधान पुरुषों से अनन्त कोटि ब्रह्मांडों की उत्पत्ति होती है । भगवान अपने अक्षरधाम में एक ही स्थान में रहते हैं और वे स्वेच्छापूर्वक उन अनन्त कोटि ब्रह्मांडों में अपने भक्त के लिए अनन्त रुपों में दिखायी देते हैं ।'
अखंडानन्द स्वामी ने पुनः प्रश्न पूछा कि - 'श्रीकृष्णनारायण तो सदैव मनुष्याकार हैं तथा उन भगवान का स्वरुप सर्वदा सत्य है । वे ही भगवान कभी मत्स्य, कच्छ, वराह तथा नृसिंहादि अनेक रुपों द्वारा दृष्टि गोचर होते हैं । इसे कैसे समझना चाहिए ? प्रत्येक ब्रह्मांड में कल्याण की रीति तथा भगवान की मूर्ति एक समान होती है या उसमें भिन्नता रहती है ?
श्रीजी महाराज बोले कि - 'भगवान की मूर्ति यद्यपि सर्वत्र एक समान रहती है फिर भी भगवान अपनी मूर्तियों को जहाँ जैसी दिखलाना चाहिए वहाँ वैसी दिखलाते हैं । जहाँ जितना प्रकाश करना चाहिए वहाँ उतना प्रकाश करते हैं । स्वयं तो वे सर्वदा द्विभुज हैं । फिर भी अपनी इच्छा से कहीं चतुर्भुज, कहीं अष्टभुज तो कहीं अनन्त भुज रुप दिखाते हैं । वे मत्स्य कच्छ आदि रुपों में भी दिखायी पडते हैं । इस तरह वे जहाँ जो उपयुक्त समझते हैं वहाँ वैसा रुप दिखाते हैं । स्वयं तो वे सर्वदा एक रुप से ही विराजमान रहते हैं । वे एक स्थान पर निवास करते हुए भी अनन्त कोटि ब्रह्मांडों में अन्तर्यामी रुप से व्याप्त होकर रहते हैं । जैसे व्यासजी एक ही थे और उन्होंने स्थावर जंगम तथा समस्त जीवों में रहकर शुकजी का आह्वान किया था । शुकजी ने भी स्थावर जंगम आदि समस्त सृष्टि में रहकर उत्तर दिया । इस तरह से शुकजी जैसे महान सिद्ध भी समस्त जगत में व्याप्त रहने में समर्थ हो जाते हैं । जब भगवान के भजन के प्रताप से वे ऐसी योगकला को प्राप्त हुए हैं तब स्वयं भगवान पुरुषोत्तम जो योगेश्वर हैं तथा सर्व योगकलानिधि हैं ।' एक स्थान पर रहकर अनन्त कोटि ब्रह्मांडों में स्वेच्छापूर्वक जहाँ जैसा उचित लगे वहाँ वैसी उनकी मूर्ति दिखायी पडे उसके सम्बन्ध में क्या कहना ? यदि इन भगवान में ऐसा सामर्थ्य हो । इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है । जैसे कोई नट हो तो वह तुच्छ माया को जानता है उसमें भी लोगों को कितना आश्चर्य होता है । उसका यथार्थ रुप से पता नहीं चलता। तो भगवान में सर्व कलायें रही हैं और वे महाश्चर्य जान सकता है ? भागवत में कहा गया है कि 'भगवान की माया को इतने लोग पार कर चुके हैं ? उसमें यह भी कहा गया है कि कोई भी भगवान की माया के बल का पार नहीं पा सका है ।' इस प्रकार के कथन से यह समझना चाहिए कि इन भगवान की योगकला के सम्बन्ध में यदि ब्रह्मादिक देवों को भी कुतर्क उत्पन्न हो जाय तो उनके लिए यही कहा जायगा कि उन्होंने माया के बल का पार नहीं पाया है। कुतर्क भी यह है कि 'ये भगवान ऐसा क्यों करते हैं ?' परन्तु भगवान के सम्बन्ध में तो ऐसा समझना चाहिए कि वे तो समर्थ है अतः वे जो करते हैं ठीक ही करते हैं । इस तरह से भगवान को निर्दोष समझे तो यह समझना चाहिए कि वह माया को पार कर चुका है । कल्याण की रीति तो एक समान ही है । फिर भी भगवद भजन करनेवाले के लिए उत्तम, मध्यम तथा कनिष्ठ नामक तीन प्रकार के भेद हैं । उनकी श्रद्धा भी अनंत प्रकार की है । इस योग के कारण कल्याण के मार्ग में भी भेद हुए हैं । परन्तु कल्याण का मार्ग भी एक ही है तथा भगवान का स्वरुप भी एक ही है । वे भगवान अति समर्थ है । उनके जैसा होने के लिए अक्षर पर्यन्त कोई भी समर्थ नहीं हो पाता है । यह सिद्धान्त है ।'
मुक्तानन्द स्वामी ने श्रीजी महाराज से कहा कि - 'झीणाभाई तो आज अत्यन्त खिन्न हुए और यह बोले कि - 'जब महाराज हमारे घर नहीं आये तो हमें घर में रहने का क्या काम है ?'
यह बात सुनकर श्रीजी महाराज बोले कि - 'जो पुरुष निराशा से कुपित होकर प्रेम करता है ऐसा प्रेम अन्त तक नहीं निभ पाता । क्रोधी व्यक्ति ही भक्ति तथा प्रेम अन्त में असत्य सिद्ध होते हैं । उद्विग्न रहकर तेजहीन मुख रखना बहुत बडी कमी है ।'
झीणाभाई ने कहा कि - 'भगवान और उनके सन्त जब किसी के घर आवें तब तो उनका मुख प्रफुल्लित रहना चाहिए । जब भगवान और सन्त नहीं आते तब तो मुख पर उदासी रहनी ही चाहिए ओर हृदय में दुःख भी होना चाहिए।'
यह वार्ता सुनकर श्रीजी महाराज बोले कि - 'जब भगवान और सन्त किसी के यहाँ पधारे तब प्रसन्न होना चाहिए । लेकिन दुःख तो कभी भी प्रकट नहीं करना चाहिए । यदि किसीने दुःख से उद्विग्न बने रहने का स्वभाव अपना लिया हो तो अन्त में कोई अशुभ घटना हुए बिना नहीं रहती । अतः अपने-अपने धर्म में रहकर भगवान की जिस प्रकार की आज्ञा हो, उसका प्रसन्नतापूर्वक पालन करना चाहिए । परन्तु अपनी पसन्द पर जोर देने के लिए व्यथित नहीं रहना चाहिए । यदि भगवान कहीं जाने की आज्ञा करें तो उद्विग्न होकर निराश नहीं होना चाहिए क्योंकि भगवान द्वारा पहले दिए गए दर्शनों, प्रसाद तथा अनेक प्रकार की ज्ञान वार्ता आदि क्रियाओं से जो सुख प्राप्त हुआ है वह नष्ट हो जाता है । यदि उद्विग्नता बनी रही तो बुद्धि पर केवल तमोगुण ही छाया रहेगा । ऐसा करने से उसे जहाँ भेजा जाता है वहाँ दुःखी होकर ही जाता है । अतः उद्वेग के कारण यथाथर आज्ञा का पालन भी नहीं करता । अतः भगवान के भक्त को तो सदा प्रसन्न रहना चाहिए और प्रसन्न मन से ही भगवान का भजन करना चाहिए । चाहे कैसा भी अशुभ देशकाल हो फिर भी हृदय में लेशमात्र भी व्यग्रता नहीं आने देनी चाहिए ।'
इति वचनामृतम् ।।४।। ।। ११२ ।।