संवत् १८ के मार्गशीर्ष एकादशी के दिन श्रीजी महाराज ग्राम श्री लोया स्थित सुराभक्त के दरबार में पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने मस्तक पर सफेद फेंटा बाँधा था । सफेद चादर ओढी थी । और सफेद खेस धारण किया था । उनके मुखारविंद के समक्ष परमहंसों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
श्रीजी महाराज परमहंसों से बोले कि - ''प्राचीन काल में जो आचार्य हो गये हैं उनकी पृथक पृथक रुचि रही है । उनमें शंकर स्वामी का अद्वैत सिद्धांत ज्ञानांश प्रधान प्रतीत होता है । तथा रामानुजाचार्य का यह मत है कि जीव माया और पुरुषोत्तम यह तीनों नित्य हैं । पुरुषोत्तम जीव माया के नियंता तथा सबसे कारण है । वह अपने अक्षरधाम में सदैव दिव्य आकार में विराजमान रहते हैं । सभी अवतार उनके ही हैं । जीव को ऐसे पुरुषोत्तम नारायण की उपासना करनी चाहिए । इस प्रकार का मत रामानुजाचार्य का है । तथा वल्लभाचार्य ने केवल भक्ति पर निष्ठा रखने पर जोर दिया है । इन समस्त आचार्यों ने अपने ग्रंथों में प्रसंग के अनुसार अन्य वार्ताएँ लिखी हैं । परन्तु किसी न किसी प्रकार से उन्होंने अंत में अपनी रुचि प्रगट की है । इस प्रकार उनके ग्रंथ में उनके वचनों द्वारा उनका अभिप्राय यथार्थ रुप से प्रतीत होता है । तो हमारी वार्ता को सुनकर आप सबको पता चल गया होगा कि हमारी कैसी रुचि है । जैसे सुई के अंदर डोरा चला जाता है और माला के मनके के अन्दर आर-पार रहता है । वैसे ही हमारी समस्त बार्ताओं में कौन-सा अभिप्राय निरन्तर आर-पार बना रहता है । वह जिसको जैसा प्रतीत होता है - वैसा आप कहें ।''
तब समस्त बडे परमहंसों में से जिसको जैसा लगा उसने वैसा कहा । श्रीजी महाराज बोले कि - ''हम अपना अभिप्राय और रुचि कहते हैं । प्रथम तो हमें यह पसन्द है कि ऋषभदेव भगवान वासुदेव के साथ एकात्मता को प्राप्त किए थे । तब भी जब उन्हें सिद्धियाँ प्राप्त हुई और भगवान होते हुए भी अन्य सिद्धिओं का ग्रहण नहीं किया । श्रीमद् भागवत में कहा है कि - 'योगी सिद्ध हो और उसने अपने मनको वश में कर लिया हो तो भी उसे अपने मन पर विश्वास नहीं करना चाहिए ।' यहाँ श्लोक हैं -
''न कुर्यात्कर्िंहचित्सरव्य मनसि ह्यनवस्थिते ।
यद्विस्रर्भाच्चिराच्चीणं चस्कन्द तव ऐश्वरम् ।।
नित्यं ददाति कामस्य छिद्रं तमनु ये।श्यः ।
योगिनः कृतमैत्रस्य पत्युर्जायेव पुंश्चली ।।''
इस प्रकार से जो मनका विश्वास न करे ऐसा ही त्याग मुझे प्रिय है । मेरे मन में श्वेतद्वीप तथा बद्रीकाश्रम जितने अच्छे लगते है उतने अन्य लोग नहीं अच्छे लगते । हमारे मन में यह रहता है कि श्वेतद्वीप तथा बद्रिकाश्रम में जाकर निरन्त भाव से तप करेंगे तो बहुत अच्छा लगेगा, परन्तु अन्य लोकों में अनेक प्रकार का वैभव का भोग करना नहीं अच्छा लगता है । भगवान के जो अनेक अवतार हो चुके हैं उन्हें हम यह जानते है कि वह सब अवतार नारायण के ही है । फिर भी उन अवतारों में हमें ऋषभदेवजी बहुत अच्छे लगते हैं । तथा उनसे कुछ कम कपिलजी और दत्तात्रेय एक समान लगते हैं । इन तीनों अवतारों की अपेक्षा करोडों गुना श्रीकृष्ण के प्रति मेरा प्रेम है । और यह जानते हैं कि - ''अन्य समस्त अवतारों की अपेक्षा यह अवतार बहुत महान है तथा बहुत सामर्थ्यवान है । इसमें अवतार तथा अवतारी जैसा भेद नहीं है ।''
मत्स्य, कच्छपादि भगवान के अन्य अवतार है परन्तु उसमें हमारी अधिक रुचि नहीं है । इस प्रकार हमारी तो यह उपासना है कि सबसे परे एक विशाल तेजपुंज है वह तेजपुंज नीचे ऊपर तथा चारों और प्रमाण रहित तथा अनन्त है। उस तेज समूह के मध्य भाग में एक बडा सिंहासन है और उसके ऊपर दिव्य मूर्ति श्री नारायण पुरुषोत्तम भगवान विराजमान हैं । उस सिंहासन के चारों ओर अनन्त कोटि मुक्त बैठकर उन नारायण का दर्शन करते हैं । ऐसे मुक्तों के सहित श्री नारायण हैं उन्हें हम निरन्तर देखते हैं । उन भगवान में अतिशय तेज हैं । जब उस मुक्त समुदाय के साथ भगवान के दर्शन नहीं होते तब मुझे अत्यन्त कष्ट होता है । वह तेज समूह तो निरन्तर दिखाई देता है तो भी उसमें रुचि नहीं है । भगवान की मूर्ति के दर्शन करके ही अत्यन्त सुख मिलता है । मेरी इस प्रकार की उपासना है । भगवान के लिए जैसे भक्ति गोपियों की थी वैसी भक्ति अच्छी लगती है । इसलिए हम सब मनुष्यों को देखते रहते हैं । जैसे किसी कामी स्त्री को पुरुष में तथा कामी पुरुष को स्त्री में जैसा प्रेम होता है उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि - 'ऐसी प्रीति यदि भगवान में रहे तो अच्छा ।' किसी को पुत्र तथा धन से बहुत प्रेम करते देखकर ऐसा लगता है कि - 'ऐसा प्रेम यदि भगवान से हो जाए तो उत्तम । यदि कोई गीत गाता हो उसे सुनकर उसके पास किसी मनुष्य को भेजकर या स्वयं उसके पास जाएँ और समझें कि यह बहुत अच्छा करता है ।'
हमें तो प्रेम ऐसे व्यक्ति के साथ होता है जिसमें काम, क्रोध, लोभ, स्वाद, मान, ईर्ष्या, दंभ, कपट आदि दोष न हों और धर्मशास्त्र के अनुसार धर्मपालन करता हो तथा भगवान की भक्ति से युक्त हो ऐसे व्यक्ति के साथ ही बैठना-उठना अच्छा लगता है । यदि वह ऐसा न हो और हमारे साथ रहता हो तो भी उसके साथ मेल नहीं बैठता, उसकी तो हम अपेक्षा ही करते हैं । पहले तो हमें कामी पुरुष से सम्बन्ध पसन्द नहीं और अब तो जिसमें क्रोध मान तथा ईर्ष्या ये तीनाण हों उससे सम्बन्ध रखना पसन्द नहीं है । क्योंकि कामी पुरुष तो गृहस्थ की तरह निर्मानी होकर सत्संग में पडा रहता है परन्तु जिसमें मान, क्रोध, ईर्ष्या हो वह तो सत्संग में से अवश्य गिर जाता है अतः इन तीनों से मन उद्विग्न रहता है, मान क्या है ? मानी पुरुष अपने से बडे मनुष्य के आगे भी अहंभाव रखता है, परन्तु उसके सामने नम्रतापूर्वक, सेवक भाव नहीं रखता है ।'
अब समस्त अभिप्राय संक्षेप में कहते हैं वह यह है कि - 'जिस प्रकार शंकर स्वामी ने अद्वैत ब्रह्म का प्रतिपादन किया है उसमें हमारी रुचि नहीं है, रामानुज स्वामी ने जिस तरह से क्षर-अक्षर से परे पुरुषोत्तम भगवान का निरुपण किया है उस पुरुषोत्तम भगवान की हम उपासना करते हैं । गोपियों के समान पुरुषोत्तम भगवान की हम भक्ति करते हैं । शुकजी तथा जडभरत के समान हमारे अंदर वैराग्य और आत्मनिष्ठा है । इस प्रकार की मेरी रुचि है तथा अभिप्राय है । यह मेरी वार्ता मेरे द्वारा मान्य हमारे संप्रदाय के ग्रंथों पर जो बुद्धिमान व्यक्ति पूर्वा पर दृष्टि द्वारा विचार करके देखेगा उसे यह बात समझ में आयेगी । इस प्रकार से श्रीजी महाराज ने अपने भक्तजनों को शिक्षा देने के लिए यह वार्ता की कि स्वयं वे तो साक्षात पुरुषोत्तम नारायण हैं ।'
इति वचनामृतम् ।।१४।। ।। १२२ ।।