वचनामृतम् १५

संवत् १८ के मार्गशीर्ष कृष्ण त्रयोदशी के दिन रात्रि के समय श्रीजी महाराज ग्राम श्री लोया में भक्त सुरा खाचर के दरबार में विराजमान थे । उन्होंने श्वेत फेंटा सिर पर बाँधा था तथा दूसरा सफेद फेंटा सिर से लेकर आकंठ तक लपेटा था तथा गर्म पोसकी लाल बगलबंडी पहनी थी, श्वेत दुपट्टा धारण   किया था तथा श्वेत सूती शाल और सफेद पिछौरी एक साथ मिलाकर ओढे हुए थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष देश-देश के हरिभक्त तथा परमहंसों की सभा बैठी थी ।
         
श्रीजी महाराज कृपा करके बोले कि - ''यह जीव अध्यात्म, अधिभूत और आधिदैविकता से समस्त देह में नख सेशिखा पर्यन्त व्याप्त होकर रहा है। और देवता तथा इन्द्रियरुप द्वारा जीव मुक्त भाव से रहता है परन्तु देवता इन्द्रियों से पृथक होकर भोक्ता नहीं है ।''
         
तब नित्यानंद स्वामी ने आशंका की कि - 'हे महाराज ! ऐसा कहा जाता है कि जीव सामान्य रुप से देह में व्याप्त होकर विशेष रुप से हृदयाकाश में रहा है, परन्तु समस्त भागों में जीव की शक्ति का परिचय नहीं होता । उसे किस प्रकार समझना चाहिए ?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - ''जैसे सूर्य अपनी किरणों द्वारा समस्त पदार्थ में व्याप्त होकर रहा है परन्तु आगे जैसा पदार्थ रहता है वहा सूर्य का प्रकाश भी वैसा ही दिखाई देता है । जैसे काँच की भूमि तथा स्वच्छ निर्मल जल में सूर्य का प्रकाश शुद्ध दिखाई पडता है वैसा पथरीली भूमि रेतीवाली भूमि तथा गंदे पानी में दिखाई नहीं देता है । इस प्रकार सूर्य के प्रकाश में न्यूनता तथा अधिकता दिखाई पडती है । वैसे यह जीव इन्द्रियों अन्तःकरण तथा गोलक में समान भाव से रहता है । किन्तु इन्द्रियों में स्वच्छता होने के कारण विशेष प्रकाश दिखाई देता है । देखिए नेत्र में जितना तेज दिखाई देता है वैसा क्या कभी नाक-कान में दिखाई पडता है ? नहीं दिखता । चार अतःकरणों की अति स्वच्छता है अतः वहाँ जीव का अधिक प्रकाश मालूम होता है । तथा अन्य इन्द्रियों में न्यून दिखता है । परन्तु जीव तो समस्त देह में समान भाव से रहा है ।''
         
ब्रह्मानंद स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'इस जीव को बहुत से तारा के समान, दीया के समान तथा मध्यकालीन प्रकाश के समान देखते हैं । इसे कैसे समझना चाहिए ?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - ''जिसे अक्षिविद्या प्राप्त है, उसे नेत्र द्वारा जीव का दर्शन होता है और उसके द्वारा भगवान की मूर्ति भी देखता है । उसी तरह से जिस इन्द्रियों द्वारा लक्ष्य हुआ हो वह आत्मा को देखता है । जैसे काँच का कोई पुतला मनुष्य आकार में बनाया हो उसके सभी अवयव तथा रोम नाडियाँ भी सभी काँच की हों और उस पुतले के अन्दर तेज भरा हो वही तेज दिखता हो । जो नली की खाली जगह होगी वह समग्र रुप से दिखाई नहीं पडती । उसी तरह से इस जीव का जैसा स्वरुप देखा है वैसा ही बताते हैं परन्तु उनकी निरावरण दृष्टि नहीं हुई अतः उसको जैसी आत्मा है वैसा नहीं दिखाई देता । जब उनकी निरावरण दृष्टि आत्माकार हो जाती है तब इन्द्रियों के गोलक के जो विभाग उन्हें दृष्टिगोचर नहीं होते तब जैसी आत्मा है वैसा दिखाई पडता है। जैसे जो आकाश की दृष्टि को प्राप्त हुआ हो उसकी दृष्टि में चार भूत नहीं आते वैसे ही जिसकी निरावरण दृष्टि होती है उसको गोलक इन्द्रियों देवता तथा अन्तःकरण के द्वारा ज्ञान जीव के प्रकाश के भेद दिखाई नहीं पडते और जैसा जीव होता है वैसा वह पदार्थ दिखाई देता है । भेद दृष्टिवाले को वह यथार्थ नहीं दिखता । जैसे किसी ने गाय की पूँछ देखी, किसीने उसका मुख देखा, खुर, पेट, स्तन देखा उसने गाय के ही यह सब अंग देखे परन्तु जैसी गाय है वैसी किसीने नहीं देखी । परन्तु जिसने एक अंग देखा हो तो भी यही कहा जाएगा कि उसने गाय देखी । इसी तरह से जिसने आत्मा के प्रकाश का जितना दर्शन इन्द्रियों द्वारा किया, उतना आत्मदर्शी कहलाता है परन्तु उसे सम्यक आत्मदर्शी नहीं कहा जा सकता । इसलिए हम इस जीव का सामान्य और विशेष भाव कहते हैं ।''
         
नित्यानंद स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - ''हे महाराज ! आप जीव को निराकार बताते हैं तो उस जीव में भगवान का क्या अलिंग रुप से या मूर्तिमान होकर रहते हैं ?''
         
श्रीजी महाराज बोले कि - ''भगवान तो इन्द्रियों, देवता, अन्तःकरण और जीव में उनके आश्रय भाव से रहते हैं । श्रीकृष्ण भगवान ने उद्वव द्वारा गोपियों से यही बात कहलवायी है । इन्द्रियों अन्तःकरण, देवता और जीव के आश्रय भाव से मैं आपके समीप रहा हूँ । जैसे ब्रह्माण्ड में पंचमहाभूत सबकी देह में रहे हैं वैसे ही मैं मथुरा में रहा हूँ । जैसे महाभूत, विशेष रुप के ब्रह्माण्ड में रहते हैं वैसे मैं रहता हूँ जैसे ये भूत जीवों के शरीरों में समान्य रुप से रहें  हैं वैसे ही मैं तुम्हारे पास रहता हूँ यदि मैं नहीं दिखाई देता हूँ तो तुम्हारे चित्तवृत्तिका निरोध हो जाता है इसलिए मैं नहीं दिखाई देता । परन्तु मैं तो मूर्तिमान रुप से ही रहा हूँ ।''
         
नित्यानंद स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - ''हे महाराज ! वह भगवान इन्द्रिय आदि के आश्रय भाव से रहे हैं या पुरुष रुप से रहे हैं या अक्षररुप से रहे हैं या स्वयं पुरुषोत्तम रुप से रहे हैं ?''
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जीव पुरुषोत्तम अक्षर तथा पुरुषोत्तम का तेज तो प्रकाशभाव से सजातीय है अतः उनके प्रकाश का भेद करने में कोई समर्थ नहीं है, यद्यपि भेद बहुत है फिर भी उस भेद को देखने में कोई समर्थ नहीं होता जिस पर ये भगवान कृपा करते हैं तब प्रकाशमय दिव्य देह तैयार होतीहै तब वह यह समझता है कि यह मैं हूँ, यह पुरुष है, यह अक्षर है और इन सबसे विलक्षण ये पुरुषोत्तम है, इस प्रकार यह जीव सबको पृथक रुप से देखता है तथा इनके प्रकाश को भी विलक्षण रुप से देखता है अन्य कोई उस प्रकाश को देखने में समर्थ नहीं होता अतः ये भगवान जिस भी रुप द्वारा रहते हैं फिर भी वह स्वयं रहते हैं ।
         
वेदान्त जो उपनिषद, योग तथा साख्य नामक तीनों शास्त्र सनातन है और वे इन तीनों शास्त्रों का मत हम पृथक पृथक रुप से बताते हैं उसे सुनिए सांख्य शास्त्र २४ तत्वों को कहकर उससे परे पच्चीसवें तत्त्व को परमात्मा बताता है परन्तु वह जीव तथा ईश्वर को पृथक करके नहीं कहता, उसका यह अभिप्राय है कि तत्व जीव के बिना नहीं रहता अतः तत्वों से पृथक नहीं कहते जैसे जीव को चौबीस तत्व रुप माना जाता है वैसे ही ब्रह्मांडाभिमानी ईश्वर को भी चौबीस तत्वरुप मानते हैं । इस तरह से जीव एवं ईश्वर को तत्वरुप मानकर तत्वों के अन्तर्गत उनकी गणना करते हैं । परन्तु उन्हें तत्त्वों से पृथक नहीं गिनते पच्चीसवें तत्व को परमात्मा कहते हैं यह सांख्य का मत है किन्तु ऐसा नहीं समझना चाहिए कि जीव नहीं है क्योंकि सांख्या शास्त्र षट्सम्पत्ति, श्रवण, मनन, निदिध्यासन आदि को साधन कहते हैं, वे साधन जीव को ही करने के लिए ही कहा है । उन साधनों द्वारा जीव को विचार होता है और उस विचार द्वारा वह स्वयं को तत्वों से अलग करके अपने को ब्रह्मरुप मान लेता है और परमात्मा का भजन करता है यह सांख्य मत है, मोक्ष धर्म में नारदजी ने शुकजी से कहा है -

''त्यज धर्ममधर्मं च उभे सत्यानृते त्यज ।
उभे सत्यानृते त्यक्त्वा येन त्यजासि तत्त्यज ।।''
         
इस श्लोक का अर्थ है कि - ''जब मुमुक्षु आत्म विचार करने बैठे तब उसके मार्ग में धर्म रुप अथवा अधर्मरुप तथा सत्सरुप अथवा असत्यरुप जो जो संकल्प - विकल्प हो उनका त्याग कर डालना चाहिए तथा जिस विचार द्वारा उसका त्याग होता है उनका भी परित्याग करके ब्रह्मरुप में रहना चाहिए किन्तु देह से धर्मरुप नियम का त्याग नहीं करना चाहिए ।''
         
योगशास्त्र चौबीस तत्व को पृथक रुप से गिनते हैं । जीव एवं ईश्वर को पच्चीसवाँ तत्व कहते हैं और परमात्मा को छब्बीसवाँ तत्व बताते हैं । विवेक द्वारा पच्चीसवें तत्व की अन्य तत्वों से पृथक समझकर और उसमें अपनेपन की दृढता मानकर चौबीस तत्वों की वृत्तियों का पिंडीभाव करके उन्हें दृढता के साथ छब्बीसवें तत्व में रखाया है परन्तु विषय के सम्मुख नही जाने देता और ऐसा समझता है कि - 'यदि मेरी वृत्ति भगवान को छोडकर अन्य स्थान पर जायेगी तो मुझे संसृति होगी' अतः अत्यन्त आग्रह पूर्वक इन्द्रियों तथा अन्तःकरण की वृत्तियों को भगवान में स्थिर रखता है ।
         
सांख्यशास्त्र वालों का यह मत है कि ''मेरी इन्द्रियाँ तथा अन्तःकरण ही नही हैं तो कहाँ जायेगी ?'' अतः स्वयं को ब्रह्मरुप मानकर निर्भय रहता है जो योग वाले हैं वे तो डरते ही रहते हैं । जैसे किसी पुरुष के हाथ में तेल भरा पात्र हो और उसे सीढी से ऊपर चढना हो और यदि दोनों और खुली तलवार लेकर डराने के लिए खडे हो कि एक भी बूंद गिरने पर उसका सिर काट दिया जाएगा । इस डर से वह सावधान रहता है और तेल को नीचे गिरने नहीं देता, इस तरह से योगशास्त्रवाले विषयों से डरकर भगवान में अपनी वृत्ति रखते हैं यह योग शास्त्र का मत है ।
         
वेदान्त उपनिषद का यह मत है कि - वह पुरुषोत्तम नारायण ब्रह्म को ही सबका कारण मानते हैं और सबको मिथ्या समझते हैं, जैसे कोई आकाश की द्रष्टि को प्राप्त हो तो वह अन्य तत्त्व को नहीं देखता वैसे ही ब्रह्म को देखने वाला अन्य किसी को नहीं देखता, ऐसा वेदान्त का मत है ।'
                        
इति वचनामृतम् ।।१५।।  ।। १२३ ।।