संवत् १८ में मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी को प्रातःकाल के समय श्रीजी महाराज ग्राम श्री लोया में सुराखाचर के दरबार में पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने मस्तक पर श्वेत फेंटा बाँधा था और दूसरे सफेद फेंटा को मस्तक के गले तक लपेटा था । गर्म पौस की लाल बगलबंडी पहनी थी और श्वेत खेस पहनी थी और सूती शाल ओढी थी । और उनके मुखारविन्द के आगे परमहंसों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
श्रीजी महाराज ने कहा कि - 'बडे-बडे परमहंस परस्पर प्रश्न उत्तर करिए ।' तब गोपालानंद स्वामी ने ब्रह्मानंद स्वामी से प्रश्न पूछा कि - 'कैसे पुरुष का देश, काल, क्रिया, संग आदि द्वारा पराभव नहीं होता । और कौन-सा पुरुष पराजित हो जाता है ? सुनने में तो यह आता है कि - ब्रह्मा को भी सरस्वती को देखकर मोह हुआ तथा शिवजी को भी मोहिनी को देखकर मोह हुआ था ।' अतः विचार करके उत्तर दीजिए कि देश काल आदि द्वारा इतने बडे देवों का भी पराभव हुआ ?'
इसका उत्तर ब्रह्मानंद स्वामी देने लगे, परन्तु यथार्थ उत्तर न दे सके ।
श्रीजी महाराज बोले कि - 'इसका उत्तर यह है कि नाडीयों और प्राणों को नियन्त्रित करके निर्विकल्प स्थिति द्वारा यदि श्री नारायण के चरणारविंद का ध्यान किया जाये तो तुच्छ जीव का भी देशकाल, संग, आदि में पराभव नहीं होता । इसी तरह ब्रह्मा आदि रहे हों तो उनका पराभव नहीं हो सकता । यदि ऐसी स्थिति न रही हो और देहासक्त रहा हो तो अन्य जीवों का पराभव होता है तथा ऐसे महान ब्रह्मादि देवों का भी पराभव हो जाता है' ऐसा न हो तो-
'
तत्सृष्टसृष्टेषु कोन्वखण्डितधीः पुमान् ।
ऋषिं नारायणमृते यो षिन्मय्थेह मायया ।।'
इस श्लोक का अर्थ देना उचित सिद्ध नहीं होता अतः ऐसी स्थिति में रहते हुए केवल नारायण ऋषि का पराभव नहीं हो पाता दूसरा चाहे कितना बडा ही क्यों न हो वह यदि नारायण के चरणारविन्दों में निमग्न नहीं रहता तो उसका पराभव हो जाता है यदि निमग्न रहता है तो उसका पराभव नहीं होता इस प्रकार से हमने अन्तःकरण में अचल सिद्धान्त रखा है, भागवत में कहा गया है -
'एतदीशनमीशस्य प्रकृतिस्थो।पि तदगुणैः ।
न युज्यते सदात्मथैर्यथा बद्धिस्तदाश्रया ।।''
भगवान ने यह भी कहा है -
'दैवी ह्येषा गुणमयीं मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ।।'
इस प्रकार माया से निर्लिप्त केवल नारायण की रहते हैं अथवा उन नारायण को निर्विकल्प रुप से प्राप्त पुरुष का भी पराभव नहीं होता यदि कोई सविकल्प रुप से नारायण को प्राप्त होता है तो वह चाहे कितना ही बडा हो फिर भी उसका पराभव होता है ।
इसके बाद नित्यानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'हे महाराज ! जब तक इन मुक्तों को गुण के साथ सम्बन्ध रहता है तब तक इनमें देश कालादि द्वारा विपर्ययभाव होता है किन्तु नारायण तो गुणों में रहते हुए भी देशकालादि द्वारा पराभव को नहीं प्राप्त होते यह बात तो ठीक है, परन्तु जब उन सब मुक्तों का गुणों से सम्बन्ध न रहे तथा वे निर्गुण भाव से अक्षरधाम में रहे हों और नारायण भी वहा उसी रुप में रहे हों तब वे सब उस समय चैतन्यभाव एवं निर्गुण होते हैं तथा 'मम साधर्म्यमागताः' के अनुसार नारायण के साधर्म्य भाव को प्राप्त हो चुके हैं ऐसे मुक्तों तथा नारायण के मध्य भेद किस प्रकार से समझना चाहिए ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'चन्द्रमा तथा ताराओं में भेद है कि नहीं? देखिए प्रकाश की दृष्टि से भी वे एक समान नहीं हैं तथा बिम्ब में भी बडा भेद है चन्द्रमा द्वारा समस्त औषधियों का पोषण होता है अन्य तारों द्वारा नहीं होता । रात्रि के अन्धकार को चन्द्रमा ही मिटाता है किन्तु तारे अंधेरे को हटाने में समर्थ नहीं होते । इसी तरह नारायण तथा मुक्तों में भेद है । जैसे राजा और उनके नौकर-चाकर मानवजाति की दृष्टि से समान हैं फिर भी राजा का सामर्थ्य ऐश्वर्य, रुप एवं लावण्य सब सर्वोपरि रहते हैं । और जो काम राजा कर सकता है वह काम नौकर चाकरों से नहीं हो सकता चाहे वह कितने ही बडे क्यों न हो उसी प्रकार से पुरुषोत्तम नारायण सर्व कर्ता, सर्वकारण, सर्वनियन्ता, अतिरुपवान, अति तेजस्वी, अत्यन्त समर्थ तथा 'कर्तुम् अकर्तुम् तथा अन्यथामर्तुम्' शक्ति के धारक हैं । यदि वह चाहे तो अक्षरधाम में स्थित समस्त मुक्तों को अपने तेज में विलीन करके स्वयं अकेले ही विराजमान रह सकते हैं । यदि वह इच्छे तो मुक्तों द्वारा की गई अपनी भक्ति को अंगीकार करके उसके सहित विराजमान रहे । जिस अक्षरधाम में वह स्वयं रहे हैं, उस अक्षर को भी लीन करे स्वतः विराट रुप से अकेले विराजमान रह सकते हैं । यदि उनकी इच्छा हो तो अक्षरधाम के बिना अनंतकोटि मुक्तों को ऐश्वर्य द्वारा धारण करने में समर्थ हैं । जैसे पृथु भगवान ने पृथ्वी से कहा कि - 'मैं अपने धनुष से निकले बाणों द्वारा तुझे मारकर अपनी सामर्थ्य से इस समस्त जगत को धारण करने में समर्थ हूँ ।' वैसे ही नारायण भी अपने ऐश्वर्य द्वारा सर्वोपरि हैं । जो व्यक्ति उन्हें तथा अन्य अक्षरादि मुक्तों को एक समान समझते हैं उन्हें दुष्ट बुद्धिवाला और अतिपापी समझना चाहिए । उनका दर्शन भी नहीं करना चाहिए । ऐसी समझ रखनेवालों को देखने मात्र से पंच महापाप के समान पाप लगता है । नारायण को लेकर ही किसीकी भी महत्ता संभव होती है । नारायण के कारण ही विष्णु, शिव, ब्रह्मा, नारद, सनकादिक को भगवान कहा जाता है । नारायण की महिमा को लेकर ही उद्धव को भगवान कहते हैं । नारायण के द्वारा मुक्तानंद स्वामी जैसे संत को भगवान के समान माना जाता है । नारायण के सम्बन्ध के बिना अक्षर को भी भगवान नहीं कहा जा सकता । तो दूसरों की तो बात ही क्या कहें ? और 'अपरिमिता ध्रुवास्तनुभृतो यदि स्वर्गतास्तहिं न झास्यतेति नियमो ध्रुव ! ने तरथा'
इस वेद स्तुति का भी यही अर्थ है । यदि ऐसा न हो तो हम सब देह से भिन्न आत्मा को ब्रह्मरुप जानते हैं तथा ज्ञान वैराग्य आदि साधनयुक्त होने पर भी उन नारायण को प्रसन्न करने के लिए रात-दिन जागरण करते हैं, कीर्तन तथा हाथ की ऊँगलियाँ फट जायें इस प्रकार से ताली बजाकर नाम स्मरण करते हैं तथा कथा वार्ता भी रात-दिन करते कराते रहते हैं । यदि नारायण के सामने बनने का सामर्थ्य होता तो इतना प्रयास क्यों करते ? अतः नारायण के समान तो एक नारायण ही है, परन्तु उनके जैसा कोई नहीं हो सकता । 'एकमेवा द्वितीयं ब्रह्म ।' इस श्रुति का भी यही अर्थ है कि 'नारायण जैसे एक नारायण ही है ।' यह समस्त शास्त्र का सिद्धांत है । इस प्रकार भक्तजनों को शिक्षा देने के लिए वार्ता करी है कि वह तो स्वयं साक्षात पुरुषोत्तम नारायण हैं ।
इति वचनामृतम् ।।१३।। ।। १२१ ।।