संवत् १८ के मार्गशीर्ष कृष्णपक्ष की नवमी को स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज ग्राम श्री लोया में स्थित सुरा भक्त के दरबार में रात्रि के समय विराजमान थे । उन्होंने गर्म पोस की लाल रंग की बगलबंडी पहनी थी और अन्य सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष परमहंसों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
श्रीजी महाराज ने प्रश्न किया कि - 'भगवान का निश्चय दो प्रकार का होता है । एक सविकल्प दूसरा निर्विकल्प । इन दोनों में भी उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ ये तीन प्रकार के भेद हैं । दोनों मिलकर छह भेद हुए । इनके लक्षण पृथक पृथक कहिये ?' इसका उत्तर परमहंस के द्वारा नहीं हो सका ।
श्रीजी महाराज बोले कि - 'सविकल्प निश्चय में को कनिष्ठ भेद तो यह है कि भगवान अन्य मनुष्य के समान काम, क्रोध, लोभ, स्वाद, मान आदि में प्रवृत्त होते हैं । तब तक भगवान सम्बन्धी निश्चय रहता है । परन्तु मनुष्यों की अपेक्षा अधिक कामादि भाव प्रकट करने पर वह निश्चय नहीं रहता । मध्यम भेद यह है कि मनुष्यों से दुगने कामादि में भगवान की अधिक प्रवृत्ति रहती है तब तक निश्चय रहता है । उत्तम भेद तो यह है कि भगवान नीच जाति की तरह आचरण करें तथा मद्य, मास, परस्त्री, क्रोध, हिंसा इत्यादि जैसे आचरण क्यों न करें तो भी संशय नहीं होता । क्योंकि वह भक्त भगवान को ऐसा समझता है कि, 'भगवान सबके कर्ता हैं । परमेश्वर है और सबके भोक्ता भी हैं । अतः जो जो क्रियाएँ होती हैं वे अन्वय भाव से नियन्ता रुप द्वारा समस्त प्राणियों में रहनेवाले भगवान से प्रवर्तमान होती हैं । यदि वे नीचों जैसी थोडी क्रिया करते हैं तो भी इससे उन्हें कोई बाघ नहीं होती है क्योंकि वे तो सर्व कर्ता हैं । इस तरह से भगवान के विषय में जो सर्वेश्वर भाव मानता है उसे उत्तम सविकल्प निश्चयवाला भगवद भक्त कहते हैं ।
अब निर्विकल्प कनिष्ठ भक्त की बात कहते हैं । इस भक्त का यह लक्षण है कि भगवान को समस्त शुभ-अशुभ क्रियाएँ करते देखकर भी यह समझता है कि वे समस्त क्रियाएँ करने पर भी अकर्ता रहते हैं क्योंकि भगवान तो ब्रह्मरुप है । वह ब्रह्म कैसा है ? आकाश के समान सब में रहा है तथा सबकी क्रियाएँ उसमें होती हैं ।' ऐसा वह भगवान में ब्रह्मभाव जानता है । रासपंचाध्यायी में परीक्षित राजा ने शुकजी से प्रश्न पूछा कि - 'धर्मरक्षक भगवान ने अवतार ग्रहण करके परस्त्री का संग क्यों किया ?' तब इसका उत्तर शुकजी ने दिया कि श्रीकृष्ण तो अग्नि के समान तेजस्वी हैं । वे जो जो शुभ अशुभ क्रियाओं को करते हैं वे सब भस्म हो जाती हैं । इस प्रकार जो भगवान को निर्लेप ऐसा ब्रह्मरुप जानता है उसे कनिष्ठ निर्विकल्प निश्चयवाला भक्त कहते हैं । जो श्वेतद्वीप में रहनेवाले षट-उर्मियों से रहित निरन्न मुक्तों के समान वासुदेव की उपासना करता है उसे मध्यम निर्विकल्प निश्चयवाला कहा जाता है । अष्टावरण युक्त कोटि कोटि ब्रह्मांड अक्षर में अणु की तरह जो प्रतीत होते हैं ऐसे पुरुषोत्तम नारायण के धामरुपी अक्षररुप में रहते हुए जो पुरुषोत्तम की उपासना करते हैं, उन्हें उत्तम निर्विकल्प निश्चयवाला कहते हैं ।'
तब चैतन्यानंद स्वामी ने पूछा कि - 'हे महाराज ! इस प्रकार के निश्चय का भेद किस प्रकार से होता है ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जब मुमुक्षु प्रथम गुरु के पास जाता है तब उन वक्ता गुरु में देशकाल, संग, दीक्षा, क्रिया मंत्र, शास्त्र आदि के सम्बन्ध में रहनेवाले शुभ अशुभ भाव तथा अपनी श्रद्धा की मंद तीक्ष भावना के द्वारा ऐसा भेद हो जाता है अतः शुभ देश आदि का सेवन करना चाहिए तथा उसी वक्ता से ज्ञान सुनना चाहिए जो शांत तथा दोष रहित हो ।'
पुनः चैतन्यानंद स्वामी ने पूछा कि - 'कदाचित किसी योग द्वारा कनिष्ठ निश्चय हुआ हो तो पुनः उत्कृष्ट निश्चय होता है कि नहीं ।' तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'यदि श्रोता में उत्कृष्ट श्रद्धा उत्पन्न हो जाए तथा उसे शुभ देशादि प्राप्त हो जाएँ और उत्कृष्ट ज्ञानी वक्ता मिल जाएँ तो उसे सर्वोकृष्ट निश्चय हो जाता है । अन्यथा जन्मान्तर में उत्कृष्ट निश्चय को प्राप्त होता है ।'
इति वचनामृतम् ।।१२।। ।। १२० ।।