वचनामृतम् ११

संवत् १८ के मार्गशीर्ष कृष्णपक्ष की अष्टमी के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज ग्राम श्री लोया में सुराखाचर के दरबार में प्रातः काल के समय विराजमान थे । वे सभी श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष साधु तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
         
श्रीजी महाराज से शुकमुनि ने प्रश्न पूछा कि - 'श्रीमद् भागवत तथा भगवद् गीता आदि जो सत् शास्त्र हैं, उनका ज्ञान असत्पुरुष कैसे ग्रहण करते हैं ?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'इसका उत्तर इस प्रकार से है कि - 'असत्पुरुषों की ऐसी समझ है कि इस विश्व में स्थावर जंगम रुपी स्त्री-पुरुषों की समस्त आकृतियाँ विराट रुप आदि पुरुष नारायण की माया से उत्पन्न हुई हैं । अतः ये सभी आकृतियाँ नारायण की ही हैं । जो मुमुक्षु कल्याण का इच्छुक हो उसे सर्व प्रथम अपने मन को वश में करना चाहिए । वह मन स्त्रीपुरुष रुपी उत्तम  तथा नीच आकृतियों में जब आसक्त हो जाय तब उसी आकृति का मन में ध्यान  करना चाहिए । इससे उसे सद्यः समाधि होती है और उन आकृतियों में दोष की कल्पना करे तो उसमें ब्रह्म की भावना लानी चाहिए । कि 'समग्र जगत ब्रह्म है' इस प्रकार का विचार करे उस संकल्प को मिथ्या करना चाहिए । असतपुरुष सत्शास्त्रों में से अनुभव ग्रहण करने की क्षमता रखते हैं । यह समझना चाहिए कि यह उनके मन का अति दुष्ट भाव है और इसका फल अन्त काल में घोरतम तर्क तथा संस्कृति है ।'
         
श्रीजी महाराज से शुक मुनि ने यह प्रश्न पूछा कि - 'उन सत्शास्त्रों से सत्पुरुष कैसी शिक्षा ग्रहण करते हैं, बताइए ?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'इन सत्शास्त्रों में इन प्रश्न का उत्तर दिया गया है कि मोक्ष की इच्छा करनेवाले पुरुष को एकमात्र पुरुषोत्तम नारायण के सिवा शिव, ब्रह्मा आदि अन्य देवताओं का ध्यान नहीं करना चाहिए । मनुष्य एवं देवतारुप में पुरुषोत्तम नारायण की जो रामकृष्ण आदि मूर्तियाँ हैं उसका ध्यान करना चाहिए । जो बुद्धिमान पुरुष हैं वे जिस स्थान में भगवान की रामकृष्णादि मनुष्याकार मूर्तियाँ रही हैं वहाँ बैकुंठ, गोलोक, श्वेतद्वीप तथा ब्रह्मपुर नामक लोकों की धारणा करते हैं । उन लोकों में रहनेवाले पार्षदों, हनुमान, उद्धव आदि में करते हैं । उन लोकों में कोटि-कोटि सूर्य-चन्द्रमा एवं अगिन के प्रकाश के समान प्रकाशमान पुरुषोत्तमनारायण की दिव्य मूर्तियों की भावना रामकृष्णादि में करते हैं । इस प्रकार वे सत् शास्त्रों से ज्ञान ग्रहण करके दिव्य भाव सहित भगवान की मनुष्याकार मूर्ति का ध्यान करते हैं । उन्हें भगवान के अवतारों की मूर्तियाँ तथा उसके अतिरिक्त अन्य आकारों में समभाव रहता ही नहीं है । भगवान के अवतार की जो मूर्तियाँ है वे द्विभुज हैं उनमें चार भुजाओं तथा अष्टभुजाओं क भावना रखने की बात इसलिए कही गई है कि भगवान की मूर्तियों तथा उसके अतिरिक्त अन्य आकारों में अविवेकी पुरुषों की जो समभावना रहती है उसकी निवृत्ति हो जाय । जैसी मूर्ति अपने को मिली है उसीका ध्यान करना चाहिए।
         
परन्तु भगवान के पूर्व अवतारों की मूर्तियों का ध्यान नहीं करना चाहिए । अपने को जो मूर्ति मिली हो उसी में पतिव्रता स्त्री की तरह टेक रखनी चाहिए । जैसे पार्वतीजी ने कहा है कि -
'कोटि जन्म लग रगर हमारी ।
वरुं शंभु के रहुं कुंआरी ।।'
         
इस तरह पतिव्रता की टेक भी भगवान का रुप है । उसमें तथा अन्य जीव के रुप में अविवेकी पुरुष को समभाव हो जाता है उसे दूर करने के लिए ही यह बात कही गयी है । क्योंकि अपने को मिली मूर्ति को छोडकर यदि उसके पूर्व हुए परोक्ष अवतारों का ध्यान किया जाय तो देव मनुष्यादि आकारों का ध्यान कर लिया जाता है । अतः पतिव्रता जैसी टेक रखने को कहा गया है । परन्तु भगवान की मूर्तियों में भेद नहीं है । ऐसा सत्पुरुषों का मन्तव्य है । अतः सत्पुरुषों  से ही सत् शास्त्रों का श्रवण करना चाहिए । असत्पुरुषों से कभी भी सत्शास्त्र नहीं सुनना चाहिए ।

इति वचनामृतम् ।।११।। ।। ११९ ।।