संवत् १८६ की मार्गशीर्ष शुक्ल द्वादशी को श्रीजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में सभी श्वेत वस्त्र धारण किये विराजमान थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनिओं और देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसने श्रीकृष्ण भगवान का प्रत्यक्ष रुप से निश्चय कर लिया हो और भगवान की भक्ति एवं दर्शन करने पर भी जो स्वयं को पूर्ण काम न मानते हुए अंतःकरण में न्यूनता का यह भाव रखता हो कि 'गोलोक, वैकुंठादि धामों में विद्यमान रहनेवाले भगवान के तेजोमय रुप के दर्शन जब तक मुझे नहीं हुआ है तब तक मेरा पूर्ण कल्याण नहीं हुआ है,' तो ऐसे अज्ञानवाले जीव के मुख से भगवान सम्बन्धी बात तक नहीं सुननी चाहिए । जो भक्त प्रत्यक्ष रुप से भगवान के प्रति दृढ निष्ठा रखता हो और उनके दर्शन करके ही स्वयं को परिपूर्ण मानता हो और कभी किसी भी प्रकार की इच्छा नहीं रखता उसे तो भगवान स्वयं बलपूर्वक अपने धाम में जो अपना ऐश्वर्य और अपनी मूर्तियाँ उसे दिखाते हैं । अतः भगवान में जिसकी अनन्य निष्ठा हो उसे भगवान के प्रत्यक्ष रुप के बिना अन्य किसी की इच्छा नहीं करनी चाहिए।
इति वचनामृतम् ।। ९ ।।