संवत् १८६ की मार्गशीर्ष शुक्ल त्रयोदशी को श्रीजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में सभी श्वेत वस्त्र धारण किये विराजमान थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख परमहंसों तथा देश-देशान्तरों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
तत्पश्चात श्रीजी महाराज बोले - 'जब हम वेंकटाद्रि से सेतुबंध रामेश्वर जा रहे थे वहाँ एक साधु मिला, जिसका नाम सेवकराम था । उसने श्रीमद् भागवत आदि पुराणों का अध्ययन किया था । वह मार्ग में चलते-चलते बीमार हो गया। उसके पास एक हजार सोने की मोहरें थीं, लेकिन उसकी सेवा करनेवाला कोई भी नहीं था । इसलिए वह रोने लगा । हमने उससे कहा कि 'किसी भी प्रकार की चिन्ता न करो, हम आपकी सेवा करेंगे ।' गाँव के बाहर केले का एक बगीचा था, जिसमें एक वटवृक्ष था । उस वटवृक्ष पर एक हजार भूत रहते थे । परन्तु, साधु चल नहीं सकता था और अत्यन्त बीमार हो चुका था । उस पर हमें अतिशय दया आयी । अतः उस स्थल पर हमने केले के पत्ते बिछा कर साधु के लिए एक हाथ ऊँ चा बिस्तर तैयार किया । वह साधु रक्तमय पेचिश से पीडित था, जिसे हम धोते और सेवा करते थे । वह साधु अपनी आवश्यक्ता के अनुसार शक्कर, मिसरी, घी, अन्न हमसे मंगवाने के लिए हमें अपने पास से रुपये देता और हम वे वस्तुएँ लाकर और उनके लिए रसोई तैयार कर उन्हें भोजन कराते और हम बस्ती में जाकर भोजन करके आते थे । किसी-किसी दिन तो हमें बस्ती में से अन्न भी नहीं मिलता, जिससे हमें उपवास करना पडता था । फिर भी, साधुने किसी भी दिन हमसे यह नहीं कहा कि 'हमारे पास धन है, इसलिए तुम हम दोनों के लिए रसोई बना लो और तुम भी हमारे साथ भोजन करो ।' इस प्रकार हमारी सेवा से वे साधु दो महीने में कुछ स्वस्थ हुए । उसके बाद सेतुबंध रामेश्वर के मार्ग पर चल पडे । उस समय साधु के पास एक मन सामान था, जिसे वे हमसे उठवाते थे और स्वयं माला लेकर चलते थे। यद्यपि साधु स्वस्थ थे और उनमें एक सेर घी खाकर पचाने की शक्ति आ गयी थी, तब भी वे हमसे बोझ उठवाते थे और स्वयं खाली हाथ चलते थे । हमारी प्रकृति तो ऐसी थी कि 'हम भार के रुप में एक रुमाल भी नहीं रखते थे ।' फिर भी, हम उन्हें साधु समझकर उनका एक मन का बोझ उठाकर चलते थे । इस प्रकार हमने साधु की सेवा करके उन्हें स्वस्थ किया । परन्तु, साधु ने हमें एक पैसा भर अन्न नहीं दिया । बाद में हमने उन्हें कृतघ्न जानकर उनका साथ छोड दिया। इस प्रकार जो मनुष्य किये हुए उपकार को नहीं मानता उसे कृतघ्न समझना चाहिए । यदि किसीे मनुष्य ने कोई पाप किया हो और उसका यथाशास्त्र प्रायश्चित कर लिया हो, फिर भी यदि उसे लोक में कोई पापयुक्त कहे तो उसे भी कृतघ्न मनुष्य के समान पापी समझना चाहिए ।'
इति वचनामृतम् ।। १० ।।