संवत् १८६ की मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी को श्रीजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में सभी श्वेत वस्त्र धारण किये विराजमान थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख साधुओं तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले कि - 'इन्द्रियों की जो क्रियाएँ हैं यदि उन्हें श्रीकृष्ण भगवान एवं उनके भक्तों की सेवा में लगायें तो अंतःकरण शुद्ध होता है और जीव के अनंतकाल के पापों का नाश होता है । जो इन्द्रियों की वृत्तियों को स्त्री आदि विषयों में लगाते हैं उनका अंतःकरण भ्रष्ट होता है और कल्याण-मार्ग से उनका पतन होता है । इसलिये शास्त्रों में जिस प्रकार विषयों को भोगने का निर्देश हो उसी प्रकार उनका उपभोग करना चाहिए, परन्तु शास्त्रों की मर्यादा का उल्लंघन करके नहीं । साधुओं का संग करना चाहिए कुसंग का परित्याग करना चाहिए । और जब वह कुसंग का परित्याग करना चाहिए । और जब वह कुसंग का त्याग करके साधु का संग करता है तो देह में रहनेवाली अहंबुद्धि का नाश होता है और देह के सम्बन्ध में जो ममत्वबुद्धि है वह भी नष्ट हो जाती है तथा भगवान के प्रति असाधारण प्रीति होती है और भगवान के सिवा अन्य में वैराग्य होता है ।
तत् पश्चात उसी दिन के प्रथम प्रहर में स्वामी श्री सहजानंदजी महाराज दादाखाचर के राजभवन में नीम के सामने गोख में विराजमान थे । नीम के नीचे परमहंस, गृहस्थ सत्संगी और कर्मयोगी बहनें सभा में उपस्थित थीं । उस समय श्रीजी महाराज परमहंसो को संबोधित करके बोले - 'जिसे जिस अंग की अतिशय दृढता हो वे सभी अपने-अपने उस अंग की बात करे और जो अंग शिथिल लगता हो तो उस अंग के विषय की बात न करें और जिसे आत्मज्ञान का अत्यन्त बल हो तो वह उस अंग की बात करें कि मैं तो देह नहीं, पर आत्मा हूँ । और जिसमें निर्लोभी, निष्कामी, निःस्पृही, निःस्वादी और निरभिमानी इन पाँचों में से जिस अंग की अत्यधिक दृढता हो तो वह उस अंग की सभी बात कहें ।'
फिर तो श्रीजी महाराज स्वयं प्रसन्न होकर बोले कि - 'प्रथम तो हम अपने अंग की बात करें, फिर आप अपने अंग की बात कहें ।' ऐसा कहकर श्रीजी महाराज बोले कि - 'श्रीनरनारायण के प्रताप से हमें ऐसा प्रतीत होता है कि मैं आत्मा हूँ, अछेद हूँ, अभेद हूँ, सच्चिदानंद हूँ और जो हमारी महत्ता है वह तो स्व स्वरुप का प्रकाश तथा श्रीनरनारायण की उपासना भी उसी के द्वारा है, परन्तु बहुमूल्य वस्त्राभूषणादि, रथ, पालखी, हाथी, घोडा आदि से मेरी महत्ता नहीं हैं । समस्त जगत के मनुष्य और संसार के सभी राजा सत्संगी होकर हाथ जोडकर खडे रहें उससे हमारी महत्ता नहीं है । यदि सभी सत्संगी विमुख होकर मुझे न मानें और पहनने के लिए वस्त्र तथा रहने के लिए स्थान न मिले उससे मेरी हीनता नहीं होती । अपनी महत्ता तो श्रीनरनारायण की उपासना द्वारा मैं ब्रह्म हूँ, मैं आत्मा हूँ इस रीति की जो मेरी महत्ता है उसे यदि मैं जो मिटाना चाहूँ अथवा और जो कोई ब्रह्मादिक जैसा हो वो भी मिटाना चाहे तो भी मेरी यह महत्ता कम नहि हो सकती है । और हमारी उपासना श्रीनरनारायण की है, स्वयं ब्रह्मरुप के अंर्तगत परब्रह्म परमात्मा जैसे नरनारायण की साकार मूर्ति, उसकी उपासना है । यदी कोई स्वयं के अनुभव से कहे अथवा शास्त्र द्वारा कहे कि जो परब्रह्म पुरुषोत्तम है वह आकार रहित है, तो उस बात में हमको प्रतीति नहीं हो सकती है क्योंकि, वह पुरुषोत्तम की कृपासे उस पुरुषोत्तम का जो साकार स्वरुप है उसे मैं प्रत्यक्ष देखता हूँ । और हमको हमारे हृदय में ऐसा प्रतित होता है कि, जो परब्रह्म ऐसे पुरुषोत्तम को आकार रहित बताते है, उसे परमेश्वर की बात समझ में नहीं आती और न ही उस स्वरुप के दर्शन होते हैं और न ही वे शास्त्र समझ पाते हैं । शास्त्रों में जो भगवान का निराकार स्वरुप कहा है, वह मायिक आकार को असत्य सिद्ध करने हेतु कहा गया है । क्योंकि भगवान की मूर्ति विषयक मायिक, पंचभूत, दश इंद्रियों तथा चार अंतःकरण प्राकृत जीव की तरह नहीं है, इसीलिए शास्त्रों ने निराकार कहा है और भगवान का अलौकिक आकार है । यदि भगवान के नेत्र हैं तो वह नेत्रों के द्वारा पुरुष रुप में माया के सामने देखते हैं तब उस माया में से अनंतकोटि ब्रह्मांड उत्पन्न होते हैं । उन ब्रह्मांडो के विषय में ब्रह्मादिक देव अनंतकोटि उत्पन्न होते हैं और उस ब्रह्मांड से सर्जित अनेक स्थायी, जंगम, जीव यह सभी उत्पन्न होते हैं, इसलिए भगवान के नेत्र भी हैं । जिस दिन सभी स्थायी, जंगम सृष्टि का नाश और महाप्रलय होता है तब एक ही पुरुषोत्तम रहते हैं उस दिन वेद आकर भगवान की स्तुति करते हैं । उस स्तुति को सुनकर भगवान इस संसार की रचना करते हैं, इससे भगवान के कान भी हैं । इस तरह चौदह इन्द्रियाँ हैं लेकिन अलौकिक हैं और मन वाणी से परे हैं । राम कृष्णादि रुप जीव के कल्याण - हेतु अवतरित होते हैं तब अतिशय दया के कारण ही वे जीव को दृष्टिगोचर होते हैं । वे ऐसा सोचते हैं कि यदि मैं दृष्टिगोचर नहीं होऊँगा तो जीव मेरा ध्यान, स्मरण, पूजन, अर्चनादिक किस तरह करेंगे ? इसलिए ज्ञानी, अज्ञानी सभी को प्रत्यक्ष प्रतीत होता है पर भगवान तो जैसे हैं वैसे ही हैं और जीव को दृष्टिगोचर हुआ इसलिए मायिक देह और इन्द्रियों से युक्त नहीं है । ऐसे भगवान को निराकार कहते हैं यह हम किसी भी काल में नहीं मान सकते और वे श्रीनरनारायण की उपासना के प्रताप से इस ब्रह्मांड का राज्य मिले और ब्रह्मांड में जितनी देवांगना आदि स्त्रियाँ हैं, वे सभी सेवा में उपस्थित रहें । ब्रह्मांड में जितने भी अच्छे पदार्थ हैं, उन सभी को लाकर यदि उपस्थित कर दिया जाय तो भी ये सभी मिलकर हमें मोहित कर लेने में समर्थ नहीं हैं । और यदी हम उसमें मोह पाकर, उससे बद्ध होना चाहे फिर भी हमें किसी भी तरह वह सब बंधन नहि कर सकता है । यदि ऐसा मान भी लिया जाय कि हम मोह में बंध गये हैं, तब भी हम किसी बंधन में बंधते नहीं, ऐसी हमारे इष्टदेव की कृपा के कारण स्वरुप की दृढता है । किसे लडका देना, किसे द्रव्य देना, किसी मेरे हुए को जींदगी देना, किसे मारना यह तो हमें नहीं आता किन्तु जीव का किस तरह कल्याण होगा और जीव को भगवान के धाम में पहुँचाना तो हमें आता है । अब तो हम अधिक नहीं कहेंगे क्योंकि कहते-कहते अधिक कह दिया जाय है ।' ऐसे वचन कहकर सुंदर शरद ऋतु के कमल समान नेत्रों द्वारा सभी परमहंसो की तरफ देखकर हँसते मुख से संतो को बोले - 'हे संतो ! अब आप अपने अंग की बात कहो ।'
फिर स्वयं ऐसा बोले कि - 'हम और आप तो एक अंगवाले ही हैं। इससे हमारे अंग में आपका हिस्सा है इसलिए हमने जो कहा उस रीति से सभी को दृढ निश्चय रखना ।' इस प्रकार श्रीजी महाराज ने स्वयं का अंग कहकर दिखाया, जो भक्तजन के हित में है और स्वयं तो साक्षात् पुरुषोत्तम नारायण हैं ।'
इति वचनामृतम् ।। ८ ।।