वचनामृतमप ७

संवत् १८६ की मार्गशीर्ष शुक्ल दशमी को श्रीजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में सभी श्वेत वस्त्र धारण करके विराजमान थे। उनके मुखारविन्द के सम्मुख साधुओं तथा देश-देशान्तर के हरभक्तों की सभा हो रही थी ।

तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले - ''शास्त्रों में जहाँ-जहाँ अध्यात्म की बात आती है उसे कोई समझ नहीं पाता आर सब भ्रमित हो जाते हैं । इसलिए इस आध्यात्म की बात को हम उसके यथार्थ रुप में कहते हैं, उसे सभी सुनें। देह के सम्बन्ध में स्थूल, सूक्ष्म और कारण विषयक जो तीन प्रकार के एकात्म रुप से व्यवहार किये जाते हैं वह जीव का अन्वय - भाव है और इन तीनों देहों से पृथक रहनेवाली सत्तामात्र को जीव का व्यतिरेक भाव बताया है तथा विराट, सूत्रात्मा और अव्याकृत इन तीनों सहित ईश्वर का वर्णन करना, वह ईश्वर का अन्वय-भाव है और इन तीनों शरीरों से पृथक सत्ता मात्र के रुप में कहलाना ईश्वर का व्यतिरेक भाव है और माया तथा माया के कार्य जो अनंतकोटि ब्रह्मांड, उनमें व्यापक रुप से अक्षरब्रह्म को कहना, वह उसका अन्वय-भाव है और उन सब से व्यतिरेक सच्चिदानंद रुप से अक्षरब्रह्म को कहना, वह उनका व्यतिरेक-भाव है । अक्षरब्रह्म, ईश्वर, जीव, माया और माया का कार्य जो ब्रह्मांड इस विषय में श्रीकृष्ण भगवान को अंतर्यामी और नियन्ता के रुप में कहना चाहिए यह भगवान का अन्वय-भाव है और इन सबसे पृथक रुप से अपने गोलोकधाम में जो ब्रह्मज्योति के रुप में रहे हैं, ऐसा कथन भगवान का व्यतिरेक-भाव है । पुरुषोत्तम भगवान, अक्षरब्रह्म, माया, ईश्वर, जीव - ये जो पाँच भेद हैं, वे अनादि हैं ।

इति वचनामृतमप ।। ७।।