वचनामृतम् ६

संवत् १८६ की मार्गशीर्ष शुक्ल नवमी को श्रीजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में सभी श्वेत वस्त्र धारण करके विराजमान थे। उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनियों और देश - देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।

तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले कि - 'इस सत्संग में जो विवेकी हैं वे दिनप्रतिदिन अपने अवगुणों को देखते हैं और भगवान तथा उनके भक्तों में गुणों  को देखते हैं । भगवान तथा साधु जब उनके हित के लिए कठोर वचन कहते हैं तब वे उन्हें अपने लिए हितकारी मानकर दुःखी नहीं होते, वे तो प्रतिदिन सत्संग में बढते जाते हैं और जो अविवेकी हैं वे तो ज्यों - ज्यों सत्संग करते हैं और सत्संग की बात सुनते हैं त्यों त्यों अपने में गुण देखते हैं तथा जब भगवान एवं संत उनके दोष प्रकट करते हैं तब वे अभिमानवश उनमें अवगुण देखते हैं । तब उनकी भक्ति प्रतिदिन कम होती जाती है और सत्संग में वे प्रतिष्ठाहीन हो जाते हैं । इसलिए, यदि वे अपने गुणों का अभिमान त्याग कर दृढता के साथ भगवान तथा उनके संत में विश्वास रखें तो उनका अविवेक दूर हो जाता है और सत्संग में वे महत्ता प्राप्त करते हैं ।'

इति वचनामृतम् ।। ६ ।।