वचनामृतम् ४

संवत् १८६ के मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी को श्रीजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में सर्व श्वेत वस्त्र धारण करके विराजमान थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख साधुओं तथा देश - देशान्तर से आये हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।

तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले - 'भगवान के भक्तों को परस्पर ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए ।' इस पर आनंदानंद स्वामी बोले - 'हे महाराज ! ईर्ष्या तो रहती है ।' तब श्रीजी महाराज बोले - 'यदि ईर्ष्या ही करनी हो तो वह नारदजी जैसी होनी चाहिए । जैसे एक बार नारदजी और तुंबरु दोनों बैकुंठ में श्री         लक्ष्मीनारायण के दर्शन करने गए तब तुंबरु ने श्री लक्ष्मीनारायण के सम्मुख गान किया । उससे लक्ष्मीजी और नारायणजी दोनों ने प्रसन्न होकर तुंबरु को अपने वस्त्र और आभूषण दिये । तब नारदजी को तुंबरु के प्रति ईर्ष्या हुई कि मुझे तुंबरु जैसी गान - विद्या सीखकर भगवान को प्रसन्न करना चाहिए । तत् पश्चात नारदजी ने गानविद्या सीखी और भगवान के सम्मुख स्तुतिगान किया । तब भगवान ने कहा कि - 'आपको तुंबरु जैसा गाना नहीं आता है ।' तब नारदजी ने शिवजी को प्रसन्न करने हेतु तपस्या की तथा उनसे वरदान प्राप्त कर गान विद्या सीखी और भगवान का गुणगान करते रहे, तब भी भगवान प्रसन्न नहीं हुए । इस प्रकार नारदजी ने सात मन्वन्तर तक गानविद्या सीखी और भगवान का गुणगान किया तब भी भगवान प्रसन्न नहीं हुए । तब उन्होंने तुंबरु से गानविद्या सीखी और द्वारका में श्रीकृष्ण भगवान के सम्मुख गुणगान किया तब श्रीकृष्ण भगवान प्रसन्न हुए और उन्होंने अपने वस्त्र और अलंकार नारदजी को दिये । तब नारदजी ने तुंबरु से ईर्ष्या करनी छोड दी । इसलिए, यदि ईर्ष्या करनी हो तो इस प्रकार की करनी चाहिए जिससे ईष्या हो उसके समान गुण को ग्रहण करना चाहिए और अपने अवगुण का परित्याग करना चाहिए । यदि ऐसा न हो तो ईर्ष्या के कारण भगवान के भक्त का द्रोह होता है भगवान के भक्त को उस ईर्ष्या का सर्वथा परित्याग करना चाहिए । जो भगवान के भक्तों के प्रति द्रोह उत्पन्न करे।

इति वचनामृतम् ।। ४ ।।