वचनामृतम् ३

संवत् १८६ की मार्गशीर्ष शुक्ल षष्ठी को श्रीजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में रात्रि के समय विराजमान थे । सभी ने श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनियों तथा देश - देशान्तर के हरि भक्तों की सभा हो रही थी ।

श्रीजी महाराज बोले - 'जिसे भगवान की मूर्ति अपने अंतस्तल में अखण्ड दिखती हो उसे भी भगवानने हरेक अवतार में जहाँ-जहाँ भी लीला की हो, उस सर्व स्थान का अनुस्मरण करते रहना चाहिए । और वह ब्रह्मचारियों, साधुओं एवं सत्संगियों के साथ प्रेम रखे और इन सबका स्मरण रखे । यह इसलिये कि यदि देह त्याग के समय भगवान की मूर्ति विस्मृत हो जाय तो भी भगवान ने जिन स्थानों पर लीलाएँ की हों उनकी स्मृति रहे अथवा सत्संगी, हरिभक्तों, ब्रह्मचारी साधुओं की स्मृति रहे तो उनके योग से भगवान की मूर्ति का स्मरण हो जाय तो उस जीव को उत्तम स्थान मिलता है और उसका कल्याण भी हो जाता है। इसलिए हम बडे - बडे विष्णु यज्ञा, जन्माष्टमी, एकादशी आदि व्रतों का प्रति वर्ष उत्सव करते हैं और उनमें ब्रह्मचारियों, साधुओं और सत्संगियों को एकत्र करते हैं । यदि किसी पापी जीव को अंत समय में इन सब की स्मृति हो जाय तो उसे भी भगवान के धाम की प्राप्ति होती है ।

इति वचनामृतम् ।। ३ ।।