संवत् १८६ की पौष शुक्ल तृतीया को श्रीजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में संध्या के समय पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने काले पल्ले का दुपट्टा डाल रखा था और सफेद शाल ओढी थी । वे मस्तक पर सफेद पाग बांधे हुए थे और पूर्व की ओर मुखारविन्द किये विराजमान थे । उनके सम्मुख साधुजन झांझ और पखावज बजाते हुए कीर्तन कर रहे थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख साधुओं तथा देश-देशान्तर के सत्संगियों की सभा हो रही थी ।
तत् पश्चात श्रीजी महाराज ने उन सबको मौन रहने का निर्देश देते हुए कहा कि - ''सब सुनिए, एक वार्ता कहते हैं ।'' ऐसा कहकर उन्होंने अपने नेत्रकमलों को काफी समय तक बंद करके कुछ विचार किया, फिर बाद में वे बोले कि - ''जिन हरिभक्तों के मन में भगवान को अतिप्रसन्न करने की इच्छा हो तो एक उपाय यह है कि अपने-अपने वर्णाश्रम धर्मों के संबंध में अचल निष्ठा, आत्मनिष्ठा की अतिशय दृढता, एकमात्र भगवान के सिवा अन्य समस्त पदार्थों के प्रति अरुचि और भगवान में माहात्म्य सहित निष्काम भक्ति रखनी चाहिए । इन चारों साधनों द्वारा भगवान की अतिशय प्रसन्नता होती है । इन चारों साधनों को एकान्तिक धर्म कहा गया है, ऐसे एकान्तिक धर्मवाले भक्त इस सभा में अपने सत्संग में कई हैं। और जो भगवान के भक्त हो उसे खाते-पीते, नहाते-धोते, चलते-बैठते, समस्त क्रियाओं में भगवान की मूर्ति का चिंतन करते रहना चाहिए और अंतःकरण में जब कोई विक्षेप न हो तब भगवान का ध्यान करना चाहिए और भगवान की मूर्ति के सम्मुख देखते रहना चाहिए । यदि हृदय में संकल्प-विकल्प का कोई विक्षेप हो तो देह, इन्द्रियों, अंतःकरण, देवताओं तथा विषयों से अपने स्वरुप को भिन्न समझना चाहिए। जब संकल्पों का विराम हो जाय तब भगवान की मूर्ति का चिंतन करना चाहिए । इस देह को तो अपना स्वरुप नहीं मानना चाहिए । इस देह के जो संबंधी है, उन्हें अपने संबंधी नहीं मानना चाहिए क्योंकि जो यह जीव है, वह चौरासी लाख तरह की देहों को पहले ही धारण करके आया है और जगत में जितनी स्त्रियाँ हैं, उन सबकी देहों से वह जन्म ले चुका है । संसार में जितनी कुत्तियाँ, बिल्लियाँ और बंदरियाँ आदि चौरासी लाख योनियों में जो जीव हैं, उन सबके उदरों से उसने कितनी ही बार जन्म लिया है । इस जगत में जितनी तरह की स्त्रियाँ हैं, उनमें से उसने कौनसी स्त्री नहीं की ? उसने सभी को अपनी स्त्री बनाया है । उसी प्रकार इस जीव ने स्त्री - देह धारण कर संसार में जितने प्रकार के पुरुष हैं उन सबको अपना पति बनाया है । जिस तरह हम चौरासी लाख प्रकार के संबंधों को नहीं मानते और चौरासी लाख तरह की देहों को अपना शरीर नहीं मानते, उसी प्रकार इस देह को अपना स्वरुप नहीं मानना चाहिए, क्योंकि जब चौरासी लाख तरह की देहों का संबंध नहीं रहा तब इस देह का भी संबंध नहीं रहेगा । इसलिए, देहगृहादिक सब पदार्थों को असत्य मानकर देह, इन्द्रियों तथा अंतःकरण से अपने स्वरुप को भिन्न जानकर, अपने धर्म के प्रति निष्ठावान रहते हुए भगवान की निष्काम भक्ति करनी चाहिए तथा प्रत्येक दिन भगवान के माहात्म्य की अधिकाधिक जानकारी प्राप्त करने हेतु निरन्तर साधु का संग करना चाहिए । जो इस प्रकार नहीं समझता और केवल देहाभिमानी और प्राकृत मति वाला है, उसे सत्संग में रहते हुए भी पशुवत् समझना चाहिए । सत्संग में भगवान का महान प्रताप रहा करता है । उससे जब पशु तक का कल्याण हो जाता है, तब मनुष्य का कल्याण हो जाय तो उसमें आश्चर्य की क्या बात है ? परन्तु उसे वास्तव में भगवान का एकान्तिक भक्त नहीं कहा जा सकता । एकान्तिक भक्त तो वही हो सकता है, जिसमें पहले बतायी गयी समझ हो । ऐसा एकान्तिक भक्त देह त्यागकर तथा माया के समस्त भावों से मुक्त होकर अर्चिमार्ग (भगवान के धाम की ओर जानेवाले मार्ग को अर्चिमार्ग कहा जाता है ।) द्वारा भगवान के अक्षरधाम में जाता है । उस अक्षर के दो स्वरुप हैं । इनमें से एक तो निराकर एकरस चैतन्य है । उसे चिदाकाश और ब्रह्मधाम कहतें हैं तथा वह अक्षर दूसरे रुप से पुरुषोत्तम नारायण की सेवा में रहता है । उस अक्षरधाम को पाने वाला भक्त भी अक्षरब्रह्म के साधर्म्यभाव को प्राप्त होता है और भगवान की अखंड सेवा में रहता है । इस अक्षरधाम में श्रीकृष्ण पुरुषोत्तमनारायण सदैव विराजमान रहते हैं । इस अक्षरधाम में अक्षर के साधर्म्यभाव को प्राप्त करके अनंतकोटि मुक्त पुरुषोत्तम के दास के रुप में रहते हैं । पुरुषोत्तमनारायण उन सब के स्वामी तथा अनंतकोटि ब्रह्मांडों के राजाधिराज हैं । इसलिए हमारे समस्त सत्संगियों को तो केवल यही निश्चय करना चाहिए कि हमें भी इन अक्षर रुप मुक्तों की पंक्ति में सामिल होना है और अक्षरधाम में जाकर भगवान की अखंड सेवा में उपस्थित रहना है, किन्तु नाशवान एवं तुच्छ मायिक सुख की इच्छा नहीं करनी है और इसमें किसी के प्रति आकर्षित नहीं होना है । इस प्रकार दृढ निश्चय करके भगवान की एकान्तिक भक्ति निरन्तर करते रहना चाहिए तथा भगवान के अतिशय माहात्म्य को यथार्थ रुप में समझकर, भगवान के सिवा स्त्री, धन आदि अन्य समस्त पदार्थों की वासना का जीवित अवस्था में ही परित्याग करना चाहिए । यदि भगवान के सिवा अन्य पदार्थों की वासना रह गयी हो और इसी दशा में उसका देहान्त हो जाय तथा भगवान के धाम में जाते समय यदि मार्ग में उसे सिद्धियाँ दिखायी पडे और वह भगवान का त्याग कर उनमें लुब्ध- हो जाय तो उसे बडा विघ्न होता है । इसलिए, समस्त पदार्थों की वासना का परित्याग करके भगवान का भजन करना चाहिए ।''
इति वचनामृतम् ।। २१ ।।