वचनामृतम् २२

संवत् १८६ की पौष शुक्ल चतुर्थी के दिन मध्याह्न के समय श्रीजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र पहने थे और अपनी पाग में फूलों का तुर्रा लगा रखा था और दोनों कानों के ऊपर पुष्पगुच्छ धारण किये थे । उनके कंठ में गुलदावदी के फूलों का हार सुशोभित हो रहा था । वे पूर्व की ओर मुखकमल किये विराजमान थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख परमहंस तथा देश-देशान्तर के हरिभक्त की सभा हो रही थी । परमहंस कीर्तन कर रहे थे ।

तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले कि - ''सुनिए, एक बात कहते हैं।'' तब समस्त परमहंसों ने अपना कीर्तन गान बंद कर दिया और वे वार्ता सुनने के लिए तत्पर हो गए । श्रीजी महाराज बोले - ''मृदंग, सारंगी, सरोद तथा ताल आदि वाद्ययंत्रों द्वारा किये जानेवाले कीर्तन के समय यदि भगवान की स्मृति न रहे तो गाया हुआ गायन अनगाया जैसा रहता है । वैसे तो जगत में ऐसे कितने ही जीव हैं, जो भगवान का विस्मरण करके गाने-बजाने में लगे रहते हैं, तो भी उससे उनके मन को शांति नहीं मिल पाती । इसलिए, भगवान की मूर्ति का स्मरण करते हुए ही भगवान का कीर्तन, भगवान के नाम का रटन तथा नारायण धुन जैसे भक्ति कार्यों में तन्मय रहना चाहिए । भजन करने के लिए बैठते समय अपनी चित्तवृत्ति भगवान में रखें और भजन में से उठने के बाद अन्य क्रियाओं को करते समय यदि भगवान में अपनी चित्तवृत्ति नहि रख पाये तो उसकी वृत्ति भजन में बैठने पर भी भगवान के स्वरुप में स्थिर नहीं रह पाती । इसलिए, चलते-फिरते, खाते-पीते तथा समस्त क्रियाएँ करते समय भगवान के स्वरुप में स्थिर नहीं रह पाती। इसलिए, चलते-फिरते, खाते-पीते तथा समस्त क्रियाएँ करते समय भगवान के स्वरुप में वृत्ति रखने का अभ्यास करना चाहिए । ऐसा करते रहने पर यदि कोई जीव भगवद्भजन करेगा तो भगवान में उसकी वृत्ति स्थिर होगी । भगवान की ओर जिसका मन इस तरह लगा हो, वह तो कामकाज करते रहने पर भी भगवद्भक्ति में तन्मय बना रहता है । यदि गफलत में रहनेवाला जीव भजन करने बैठा हो तब भी उसका मन भगवान में स्थिर नहीं रह पाएगा। इसलिए, भगवान के भक्त को सावधान होकर भगवान के स्वरुप में ही अपना ध्यान लगाये रखने का अभ्यास करते रहना चाहिए ।'' इतनी बात करने के बाद श्रीजी महाराज बोले कि - ''अब कीर्तन करिए।''

इति वचनामृतम् ।। २२ ।।