वचनामृतम् २०

संवत् १८६ की पौष शुक्ल द्वितीया को श्रीजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे केबरामदे में गद्दी तकिया रखवाकर विराजमान थे । उन्होंने अपने मस्तक पर सफेद पाग बांधी थी, जिसमें पीले फूलों का तुर्रा लगा हुआ था । वे कंठ में पीले पुष्पों का हार तथा दोनों कानों में सफेद और पीले पुष्पों के गुच्छ धारण किए हुए थे । उन्होंने सफेद शाल ओढ रखी थी और काले पल्ले का दुपट्टा डाल रखा था । वे कथा-वाचन करा रहे थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख परमहंस तथा देश-देशान्तर को हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।

तत् पश्चात स्वामी श्री सहजानंदजी महाराज बोले कि - ''सुनिए, सबसे एक प्रश्न करते हैं ।' तब समस्त हरिभक्तों ने हाथ जोडकर कहा कि - ''पूछिए!'', श्रीजी महाराज बोले कि - ''अज्ञानियों में अतिशय अज्ञानी कौन है ?'' सब विचार करने लगे, परन्तु कोई भी उत्तर नहीं दे पाया । तब श्रीजी महाराज बोले कि - ''हम ही आपको उत्तर देते हैं ।'' तब सब लोगों ने प्रसन्न होकर कहा कि - ''हे महाराज ! आप से ही यथार्थ उत्तर प्राप्त हो सकेगा । कृपया  कहिए ।'' तब श्रीजी महाराज बोले कि - ''इस देह में रहनेवाले जीवरुप, कुरुप, बाल्यावस्था, युवावस्था तथा वृद्धावस्था को देखता है । इस प्रकार वह अनेक पदार्थों को देखता है परन्तु इन्हें देखनेवाला स्वयं अपने आपको नहीं देखता  देखनेवाला जीव बाह्य दृष्टि से पदार्थो को देखा करता है । लेकिन स्वयं को ही नहीं देवता है । इसी कारण वही अज्ञानियों में अतिशय अज्ञानी है । जिस तरह वह अपने नेत्रों से अनेक प्रकार के रुपों का रसास्वादन करता है, उसी तरह श्रोत, त्वक, रसना तथा घ्राण इत्यादि समस्त इन्द्रियों द्वारा विषय सुख का उपभोग करता है और उसे इसकी जानकारी भी रहती है, परन्तु स्वयं न तो अपने सुख को भोगता है और न अपने स्वरुप को ही जान पाता है । इसलिए, वही समस्त अज्ञानियों में अतिशय अज्ञानी, पागलों में अतिशय पागल, मूर्खो में अतिशय मूर्ख तथा समस्त नीचों में अतिशय नीच है ।''
         
तब शुकमुनि ने यह आशंका प्रकट की कि - ''क्या अपना स्वरुप देखना अपने हाथ में है ? यदि अपने हाथ में हो, तो जीव क्यों अतिशय अज्ञानी रहता है ?'' तब श्रीजी महाराज बोले कि - ''जिसका सत्संग हुआ है, उसे तो जीवात्मा का दर्शन अपने हाथ में ही रहता है । उसने कौन-से दिन अपने स्वरुप को देखना प्रारंभ किया, और न दिखा हो ? यह जीव माया के अधीन रहकर परवश होकर स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था में अंतर्दृष्टि के द्वारा जाता है, किन्तु स्वयं अपनी इच्छा से किसी भी दिन अपने स्वरुप को देखने के लिए अंतर्दृष्टि नहीं करता । जो जीव भगवान के प्रताप का विचार करके अंतर्दृष्टि करता है, तो वह अपने स्वरुप को अत्यन्त उज्जवल और प्रकाशमान देखता है तथा इसी प्रकाश के मध्य वह प्रत्यक्ष रुप से पुरुषोत्तम भगवान की मूर्ति के दर्शन करता है और नारद सनकादिक जैसा सुखी भी हो जाता है । इसलिए, हरिभक्त में जो कमी रहती है, वह तो उसके आलस्य के कारण ही रहा करती है ।

इति वचनामृतम् ।। २० ।।