वचनामृतम् १६

संवत् १८६ की मार्गशीर्ष कृष्ण चतुर्थी को श्रीजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में विराजमान थे । उन्होंने सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख साधु तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।

तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले कि - 'भगवान के जिस भक्त को सत् असत् का विवेक हो वह तो अपने में विद्यमान दोषों को जाने और विचार करके उनका परित्याग करे । यदि संत या किसी सत्संगी में स्वयं को कोई दोष दिखता है तो उसका त्याग करना चाहिए और उनके केवल गुण को ही ग्रहण करना चाहिए। परमेश्वर के संबंध में तो उसे कोई दोष नहीं दिखता । भगवान और संत जो भी कहें उसे परम सत्य के रुप में स्वीकार कर लेना चाहिए, परन्तु उनके वचनों के विषय में संशय नहीं करना चाहिए, और संत यह कहें कि तुम देह, इन्द्रियों मन और प्राण से भिन्न हो, सत्य हो और उसका ज्ञान रखनेवाले हो तथा देहादिक सब असत्य है, तो इन वचनों को सत्य समझकर उन सबसे अलग रहना चाहिए और आत्म रुप में व्यवहार करना चाहिए, परन्तु मन के संकल्प के साथ नहीं मिल जाना चाहिए । जिनके कारण स्वयं को बंधन हो और एकान्तिक धर्म में बाधा पडती हो, उन पदार्थों तथा कुसंग को परख लेना चाहिए, उनसे दूर रहना चाहिए और उनके बंधन में नहीं पडना चाहिए । यदि उपयोगी विचार हो तो उसे ग्रहण करना चाहिए तथा थोथे विचार का परित्याग करना चाहिए । जो कोई इस प्रकार का आचरण करे 'तो उसके बारे में यह समझना चाहिए कि उसमें विवेक है ।'

इति वचनामृतम् ।। १६ ।।