संवत् १८६ की मार्गशीर्ष कृष्ण पंचमी को श्रीजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में पश्चिमी द्वार के कमरे में कथावाचन करवा रहे थे। उन्होंने सफेद दुपट्टा धारण किया था, सफेद चादर ओढी थी, सफेद पाग पहनी थी, पीले पुष्पों की माला धारण की थी और पीले पुष्पों की कलगी पाग में लगी थी । वे अति प्रसन्न मुद्रा में विराजमान थे ।
उस समय श्रीजी महाराज ने मुक्तानंद स्वामी तथा गोपालानंद स्वामी आदि साधुओं को बुलाया और उन सबसे कहा कि - 'हमारे सत्संग में थोडा - सा कुसंग का भाग रह जाता है, उसे आज दूर करना है और यह प्रकरण इस प्रकार चलाना है कि समस्त परमहंसों, सांख्ययोगियों, कर्मयोगियों, तथा सत्संगियों में यह व्याप्त हो जाय । सत्संग में कुसंग क्या है ? वे जो निर्बलता के साथ बातचीत करते हैं तो वही सत्संग में कुसंग है । वे किस प्रकार बात करते है ? वे कहते हैं कि भगवान के वचनों का यथार्थ रुप में कौन पालन कर सकता ? व्रत नियमों का भी यथार्थ पालन कौन कर सकता है ? इसलिए जितना बने उतना धर्म पालन करना चाहिए क्योंकि भगवान तो अधर्मों का उद्धार करनेवाले हैं, वे कल्याण करेंगे ही । ऐसे लोग यह बात भी करते हैं कि भगवान के स्वरुप को हृदय में धारण करना है, वह अपने विचारानुसार ग्रहण नहीं हो पाता । यह तो भगवान की दया जिन पर होती है, वे ही उनका स्वरुप हृदय में धारण कर पाते हैं । इस प्रकार व्यर्थ बात करके वे भगवान की प्रसन्नता के साधनों, अर्थात् धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा भक्ति आदि से दूसरों को विमुख कर डालते हैं । इसलिए अब आज से अपने सत्संग में किसी को भी इस तरह की निर्बल बात नहीं करनी चाहिए । आप लोग सदैव दृढता के साथ ही बात करेंगे । यदि कोई इस प्रकार निर्बलता से बात करे तो उसे नपुंसक समझना चाहिए । जिस दिन इस प्रकार की निर्बल बात हो जाय, उस दिन उपवास करना चाहिए ।'
इति वचनामृतम् ।। १७ ।।