वचनामृतम् १५

संवत् १८६ की मार्गशीर्ष कृष्ण तृतीया को श्रीजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में विराजमान थे । और उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किये थे उनके सम्मुख समस्त साधुओं तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।

तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले - 'जिसके हृदय में भगवान की भक्ति होती है, उसकी ऐसी मनोवृत्ति रहती है कि भगवान तथा संत मुझसे जो - जो वचन कहेंगे, उनका ही मुझे पालन करना है । उसके हृदय में ऐसी ही भति रहती है । इतने वचनों का पालन मुझसे होगा और अन्य का नहीं - ऐसे वचन तो वह भूलकर भी नहीं कहता । भगवान की मूर्ति को हृदयस्थ करने में आध्यात्मिक बल दिखायी पडता है । यदि मूर्ति हृदयस्थ न हो सके, तो भी निर्बलता नहीं दिखानी चाहिए । उसे तो नित्य नवीन श्रद्धा रखनी चाहिए और मूर्ति को हृदयस्थ करते समय यदि कोई अशुभ संकल्प उत्पन्न हो जाय और हटाने पर भी न हटे तो भगवान की महान महिमा समजकर, स्वयं को पूर्णकाम मानकर संकल्प झूठा करना चाहिए तथा भगवान के स्वरुप को हृदय में धारण करना चाहिए । उसे धारण करने में भले ही दस, बीस, पच्चीस, अथवा सौ वर्ष हो जायें तो भी उत्साहहीन होकर श्रीकृष्ण भगवान के स्वरुप को हृदयस्थ करने का कार्य को नहीं छोडना चाहिए क्योंकि श्रीकृष्ण भगवान ने गीता में कहा है कि 'अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम् ।' इसलिए भगवान को इसी प्रकार हृदयस्थ करते रहना चाहिए । इस प्रकार जिसका वर्तन हो उसे एकान्तिक भक्त कहते हैं ।'

इति वचनामृतम् ।। १५ ।।