संवत् १८६ की मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया को स्वामी श्री सहजानंदजी महाराज श्री गढडा - स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्री वासुदेवनारायण के मंदिर के समीप नीमवृक्ष के नीचे पलंग पर दक्षिण की ओर मुखारविन्द किये विराजमान थे । उन्होंने मस्तक पर सफेद पगडी पहनी थी, श्वेत दुपट्टा धारण किया था तथा सफेद चादर ओढी थी । उनकी पाग में पीले पुष्पों की कलगी लगी थी । उनके दोनों कानों में फूलों के गुच्छ लगे हुए थे और उनके उपर गुलाब के पुष्प थे । उनके कंठ में पीले पुष्पों का हार था और वे अपने दायें हाथ में सफेद शेवन्ती पुष्प को घुमा रहे थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनि तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
तत् पश्चात श्रीजी महाराज ने मुनियों से प्रश्न किया - 'एक हरिभक्त है, वह संसार त्याग कर निकला है, यद्यपि वह तीव्र वैराग्यवाला तो नहीं है, किन्तु देह द्वारा नियमों का यथार्थ पालन करता है । उसके मन में संसार की थोडी सी वासना रही है, जिसे वह विचार द्वारा नष्ट कर देता है ऐसा एक त्यागी भक्त है, परन्तु उसके मन में भगवान का दृढ निश्चय बना हुआ है । दूसरा गृहस्थ भक्त है, उसमें भी भगवान का निश्चय दृढ है । वह आज्ञापालन करके घर में रहता है और संसार से उदासीन हो चुका है । जगत में जितनी वासना पूर्वोक्त त्यागी में है उतनी वासना गृहस्थ में भी है । भगवान के इन दोनों भक्तों में कौन श्रेष्ठ है ?' फिर मुक्तानंदस्वामी बोले कि - 'त्यागी भक्त श्रेष्ठ है ।' तब श्रीजी महाराज बोले - 'कि वह तो उद्विग्न रहने के कारण स्वयमेव वेष बनाकर निकला है । वह किस प्रकार श्रेष्ठ है ? गृहस्थ तो आज्ञापालन करके घर में रहता है, वह किस प्रकार न्यून है ?' तब श्रीजी महाराज के प्रश्न का मुक्तानंदस्वामी ने अनेक प्रकार से समाधान किया, परन्तु समाधान हुआ नहीं । फिर मुक्तानंद स्वामी बोले कि, 'हे महाराज ! आप उत्तर दीजिए । तब श्रीजी महाराज बोले - 'त्यागी हो उसे अच्छी तरह से खाने को मिले, यदि वह अपरिपक्व बुद्धि वाला हो तो संसार की वासना हृदय में पुनः उत्पन्न हो जाती है अथवा अत्यन्त दुःख पडने पर भी सांसारिक वासना फिर पैदा होती है । ऐसे त्याग से तो वह गृहस्थ हरिभक्त ज्यादा अच्छा है क्योंकि, गृहस्थ भक्त को जब दुःख पडता है अथवा अधिक सुख मिलता है तब वह इस प्रकार का विचार करता है कि कदाचित् मुझे इससे बंधन हो जाएगा, ऐसा समझकर वह संसार से उदासीन रहता है । इसलिए, वास्तव में वही सच्चा त्यागी है, जिसमें संसार छोडने के बाद सांसारिक वासना रहती नहीं है । गृहस्थ तो वासनावाले त्यागी की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है, यदि वह गृहस्थ धर्म का पालन करे । फिर भी, गृहस्थ धर्म तो बडा कठिन है । उसमें यह कठिनाई है कि अनेक प्रकार के सुख - दुःख आने पर भी वह संत की सेवा तथा धर्म से अपने मन को विचलित नहीं होने देता । वह समझता है कि संत - समागम के रुप में मुझे परमचिन्तामणि तथा कल्पवृक्ष प्राप्त हुआ है । धन, दौलत, लडके, लडकियाँ, ये सभी स्वप्न समान है। सच्चा लाभ तो संत - समागम जो मिला वही है । चाहे कितना ही भारी दुःख आ पडे फिर भी वह उससे विचलित न हो । इस प्रकार का गृहस्थ अतिश्रेष्ठ है। और इन सभी की अपेक्षा भगवान का भक्त होना अत्यन्त कठिन है और भगवद् भक्तों का समागम तो उससे भी अधिक दुर्लभ है ।' इतना कहने के पश्चात्त श्रीजी महाराज ने भगवान और संत की महिमा संबंधी मुक्तानंदस्वामी रचित कीर्तन कराया।
फिर मुक्तानंद स्वामी ने प्रश्न किया कि - 'श्रुतियों में ऐसा कहा गया है कि अन्ते या मतिः सा गतिः इस प्रकार यह बताया कि अंतकाल में यदि भगवान में मति रहे तो सद्गति होती है और यदि न हो तो गति भी नहीं होती इस तरह, श्रुतियों के अर्थ की प्रतीति होती है । तब यदि भक्ति की हो तो उसकी कैसी विशेषता रहती है ?' फिर श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसे साक्षात् भगवान की प्राप्ति हुई है, उसे अंतकाल में स्मृति रहे या न रहे तब भी उसका अकल्याण नहीं होता । भगवान उसकी रक्षा करते हैं । जो पुरुष भगवान से विमुख है और वह बोलते चालते देह का त्याग करे तो भी उसका कल्याण नहीं होता और वह मर कर यमपुरी में जाता है । कितने ही पापी कसाई होते हैं, जो बोलते चालते हुए देह त्याग करते हैं । और जो भगवान का भक्त हो, उसकी यदि अकाल मृत्यु हो जाय तो उससे क्या उसका अकल्याण होगा और क्या उस पापी का कल्याण होगा ? नहीं ही होगा। तब श्रुतियों का अर्थ इस प्रकार करना चाहिए कि इस समय उसकी जैसी मति है, वैसी गति अंतकाल में होती है । इसलिए भक्त की मति में ऐसा भाव रहता है कि मेरा कल्याण तो हो रहा है इस प्रकार कल्याण अंतकाल में हो ही रहा है। जिसे सन्त की और भगवान के स्वरुप की प्राप्ति नहीं हुई है उसे ऐसी भावना रहती है कि मैं अज्ञानी हूँ, इसलिए मेरा कल्याण नहीं होगा । उसकी ऐसी मति है, इसलिए अंतकाल में उसकी गति भी वैसी ही होगी । जो पुरुष भगवान के दास हो गये हैं, उनके लिए कुछ करना शेष रहा ही नहीं है । उनके दर्शन से तो अन्य जीवों का कल्याण होता है । तो फिर उसका कल्याण हुए उसमें क्या संदेह है ? परन्तु भगवान का दास बनना अत्यन्त कठिन है' क्योंकि भगवान के जो दास होते हैं उनका लक्षण तो यह है कि वे देह को मिथ्या और अपनी आत्मा को सत्य जानते हैं तथा अपने स्वामी के भोग्य पदार्थों को स्वयं भोगने की इच्छा ही नहीं करते । वे तो अपने स्वामी की इच्छा के विपरीत दूसरा आचरण ही नहीं करते। ऐसा होने पर ही उन्हें हरि का दास कहा जा सकता है । जो हरि के दास होते हैं, वे यदि देह रुप से ऐसा आचरण करते हैं, तो उन्हें प्राकृत भक्त कहा जाता है ।
इति वचनामृतम् ।। १४ ।।