संवत् १८६ की मार्गशीर्ष कृष्ण प्रतिपदा दे दिन-रात के समय श्रीजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्री वासुदेवनारायण के मंदिर के समीप नीम के वृक्ष के नीचे चबूतरे पर पलंग बिछाकर विराजमान थे । वे लाल सलवार और अंगरखा पहने हुए थे । उन्होंने मस्तक पर सुनहरी शेला बाँधा था और कमर में सुनहरी शेला कसा था । कंठ में मोतियों की मालाएँ पहनी थी और पाग में मोती की कलगी लटकती रखी थी । उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनि तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
तत् पश्चात श्रीजी महाराज से नित्यानंदस्वामी ने प्रश्न किया - 'प्रत्येक देह में जीव एक है या अनेक है ? यदि एक कहेंगे तो बट, पीपल आदि जो वृक्ष हैं उनकी डालें काटकर जब दूसरी जगह लगाते हैं, तब उसी प्रकार का वृक्ष होता है । इस प्रकार एक जीव दो तरह से हुआ या दूसरे जीव ने प्रवेश किया? और यों कहें तो यह तो एक ही जीव है तो जीव तो अखंड तथा अच्युत है, फिर वह कैसे कटा ? तब श्रीजी महाराज बोले - 'सुनिए इसका उत्तर देते हैं । श्रीकृष्ण भगवान की पुरुष एवं प्रकृति नामक दो शक्तियाँ हैं, जो जगत की उत्पत्ति, स्थित तथा प्रलय का कारण हैं । उन्होंने पुरुष प्रकृति-रुपी दोनों शक्तियों को ग्रहण कर स्वयं विराट रुप धारण किया । ऐसे विराट रुपवाले भगवान ने सबसे पहले ब्राह्मकल्प में अपने अंगों से ब्रह्मादि स्तम्ब पर्यन्त समस्त, जीवों का सृजन किया पाद्मकल्प में ब्रह्मा - रुप द्वारा मरीच्यादि का सृजन किया तथा कश्यप एवं दक्ष रुप में देव, दैत्य, मनुष्य और पशु-पक्षियों आदि समग्र स्थावर - जंगम जीवों का सृजन किया। ऐसे श्रीकृष्ण भगवान पुरुष - प्रकृति रुपिणी अपनी शक्तियों के साथ प्रत्येक जीव में अंतर्यामी रुप में हैं । और जीवने जैसे कर्म किये हो उसके अनुसार, वह जीव को संबंधित देह प्रदान करते हैं । जिस जीव ने पूर्वजन्म में कितने ही सतगुण, रजोगुण तथा तमोगुण प्रधान कर्म किये हैं, जिनके अनुसार भगवान उसे उद्भिज, जरायुज, स्वेदज तथा अंडज जातियों की देह प्रदान करते है और सुख - दुःखरुपी कर्मफल देते हैं और उस जीव के कर्मानुसार उसकी देह से अन्य देह का सृजन करते हैं जैसे कश्यप आदी प्रजापति के देह से अनेक जातियों की देहों का सृजन किया गया, उसी प्रकार वही भगवान अंतर्यामीरुप द्वारा प्रत्येक जीव में रहते हुए जिस देह से जैसे शरीर की उत्पत्ति करने की विधि होती है, उसी प्रकार दूसरी देह को उत्पन्न करते हैं । परन्तु, वे जिस जीव से दूसरी देह उत्पन्न करते हैं, वह जीव ही अनेक रुपों में परिणत हो ऐसा नहीं है । जिस जीव को जिस देह से उत्पन्न करने का कर्म - संबंध प्राप्त हुआ हो, उस जीव की उप्तति तो वे उसी के द्वारा करते हैं ।'
इति वचनामृत ।। १३ ।।