संवत् १८६ की मार्गशीर्ष शुक्ल पूर्णिमा को श्रीजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में सर्व श्वेत वस्त्र धारण करके विराजमान थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख साधुओं तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
तत्पश्चात श्रीजी महाराज बोले - 'जब जीव जगत के कारणीभूत पुरुष, प्रकृति, काल तथा महत्तत्त्वादि चौबीस तत्त्वों को जान लेता है तब स्वयं के संबंध में रहनेवाली अविद्या और उसके कार्य रुप चौबीस तत्त्वों के बंधनों से वह मुक्त हो जाता है ।' उसके बाद मुक्तानंद स्वामी ने पूछा - 'हे महाराज इसके स्वरुप का ज्ञान किस प्रकार हो सकता है ? तब श्रीजी महाराज बोले - 'उसके स्वरुप का ज्ञान तो उसके लक्षणों से हो सकता है । उसके लक्षण ये हैं प्रकृति के नियन्ता और प्रकृति से विजातीय, अखंड, अनादि, अनंत, सत्य, स्वयंज्योति, सर्वज्ञा, दिव्यविग्रह, समग्र आकार मात्र की प्रवृत्ति का कारण क्षेत्रज्ञा पुरुष है । जो प्रकृति है वह त्रिगुणात्मक है, जडचिदात्मक है, नित्य है, एवं निर्विशेष तथा महदादि समग्र तत्त्व और जीवमात्र उसके क्षेत्र है और वह भगवान की शक्ति है । गुणसाम्य और निर्विशेष जो माया है उसका जो क्षोभ करता है, उसे काल कहते हैं ।'
अब महत्तत्वादि तत्त्वों के लक्षण कहते हैं, उन्हें सुनिये ! चित्त तथा महत्तत्व को अभेद रुप से जाने, उस महत्तत्त्व के संबंध में जो सूक्ष्म रुप से व्याप्त समग्र जगत में है पर वह स्वयं निर्विकार, प्रकाशमान, स्वच्छ, शुद्धसत्वमय एवं शान्त है। अब अहंकार के लक्षण कहते हैं । अहंकार त्रिगुणात्मक है । वह भूतमात्र, इन्द्रियों, अंतःकरण देवता तथा प्राण आदि की उत्पत्ति का कारण है और जिसमें शांत, घोर एवं विमूढावस्था रहती है । अब मन के लक्षण कहते हैं । मन स्त्री आदि पदार्थों की समग्र कामनाओं की उत्पत्ति का क्षेत्र है और संकल्प विकल्प रुप में है । वह समस्त इन्द्रियों का नियन्ता भी है । अब बुद्धि का लक्षण कहते हैं । बुद्धि में पदार्थ मात्र का ज्ञान रहता है और समस्त इन्द्रिय - संबंधी जो विशेष ज्ञान है वह बुद्धि द्वारा होता है तथा बुद्धि में संशय, निश्चय, निद्रा तथा स्मृति का समावेश रहता है । श्रोत्र, त्वक, चक्षु, रसना, घ्राण, वाक्, पाणि, पाद, पायु (गुदा) और उपस्थ, इन दस इन्द्रियों के लक्षण ये हैं कि वे अपने - अपने विषयों में प्रवृत्त रहती हैं।
अब पंचमात्राओं के लक्षण कहते हैं । इनमें शब्द का लक्षण तो यह है कि शब्द अर्थमात्र का आश्रय तथा व्यवहार मात्र का कारण है । वह बोलनेवाले की जाति तथा स्वरुप का द्योतक, आकाश में रहनेवाला तथा श्रोत्र इन्द्रिय द्वारा ग्रहण किया जाता है । यही स्पर्श का लक्षण है । अब स्पर्श का लक्षण कहते हैं। स्पर्श वायु की तन्मात्रा है । वह कोमलता, कठोरता, शीतलता, उष्णता तथा त्वचा द्वारा ग्राह्य है । यही स्पर्श का लक्षण है । अब रुप का लक्षण कहते हैं। पदार्थमात्र के आकार का बोध करना, पदार्थ के संबंध में गौण भाव से व्याप्त, पदार्थ की रचना के बाद के परिणाम की निष्पत्ति, तेजतत्त्व की तन्मात्रा तथा चक्षु इन्द्रिय द्वारा ग्रहण करने की स्थित को ही रुप का लक्षण कहा है । अब रस के लक्षण कहते हैं । मधुरता, तिक्तता, कषायता, कडवापन, खट्टापन, खारापन, जल की तन्मात्रात्मकता तथा रसना इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य तत्त्व को ही रस कहा गया है । अब गंध के लक्षण कहते हैं । सुगन्ध, दुर्गन्ध, पृथ्वी की तन्मात्रात्मकता तथा घ्राण इन्द्रिय द्वारा ग्रहण करने के तत्त्व को ही गन्ध का लक्षण बताया है।
अब पृथ्वी के लक्षण कहते हैं । समस्त जीवमात्र को धारण करना, लोकरुप द्वारा स्थान, आकाशादि चार भूतों का विभाजन तथा समस्त भूतप्राणिमात्र के शरीर को प्रकट करना ही पृथ्वी का लक्षण है । अब जल के लक्षण कहते हैं । पृथ्वी आदि द्रव्यों को पिण्डीकरण करना, पदार्थो को कोमल करना, आद्रता, तृप्ति प्रदान करना, प्राणिमात्र को जीवन शक्ति, तृषा की निवृत्ति, उष्णता को दूर करना तथा बहुलता जल के लक्षण हैं । अब तेज के लक्षण कहते हैं । प्रकाश, अन्नादि को पचाने की शक्ति, रस ग्रहण, काष्ठ एवं हुतद्रव्यादि को ग्रहण करने की शक्ति, शीत को दूर करनेवाला, शोषणक्षमता और क्षुधा एवं तृषा यही तेज का लक्षण है । अब वायु के लक्षण कहते हैं । वृक्षादि में कम्पन उत्पन्न करना, तृणादि को एकत्र करना, शब्द, स्पर्श, रुप, रस और गंध नामक पाँच विषयों को श्रोत्रादि पांच इन्द्रियों के प्रति उन्मुख करना तथा समस्त इन्द्रियों का प्राणस्वरुप है, यही वायु का लक्षण है । अब आकाश के लक्षण कहते हैं । समस्त जीवमात्र को अवकाश प्रदान करनेवाला, भूतप्राणिमात्र की देह का आन्तरिक और बाह्य व्यवहार का कारण तथा प्राण, इन्द्रियों एवं अंतःकरण का स्थान आकाश का लक्षण है । इस प्रकार चौबीस तत्त्वों, प्रकृति, पुरुष तथा काल के लक्षणों को जान लेने पर यह जीव अज्ञान से मुक्त हो जाता है ।
इन सब तत्त्वों की उत्पत्ति भी जाननी चाहिए । इनकी उत्पत्ति कहतें हैं। अपने धाम में विराजमान श्रीकृष्ण भगवान ने अक्षरपुरुष रुप धारण कर माया के रुप में गर्भ स्थापन किया । तब उस माया से अनंतकोटि प्रधान तथा पुरुष हुए । वे प्रधान पुरुष कैसे हैं ? तो अनंतकोटि ब्रह्मांड की उत्पत्ति के वो कारण हैं । उनके मध्य एक ब्रह्मांड की उत्पत्ति के कारणभूत प्रधान पुरुष का वर्णन करते हैं। प्रथम पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण भगवान ने पुरुष रुप में प्रधान में गर्भ धारण किया । बाद में प्रधान से महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ और महत्तत्त्व से तीन प्रकार के अहंकारों की उत्पत्ति हुई । उनमें सात्विक अहंकार से मन तथा इन्द्रियों के देवता, राजस अहंकार से दस इन्द्रियाँ, बुद्धि एवं प्राण तथा तामस अहंकार से पंचभूत और पंचतन्मात्राएँ उत्पन्न हुई । इस प्रकार ये समस्त तत्त्व उत्पन्न हुए ।
इसके पश्चात उन्होंने परमेश्वर की इच्छा से प्रेरित होकर अपने - अपने अंशों में ईश्वर और जीव की देह का सृजन किया । ईश्वर की देह विराट, सूत्रात्मा तथा अव्याकृत हुई और जीव की देह स्थूल, सूक्ष्म और कारण हुई । विराट नामक ईश्वर की देह का द्विपरार्धकालपर्यन्त आयुष्य है । विराट पुरुष स्रे एक दिवस में चौदह मन्वन्तर होते हैं और जितना उनका दिन होता है, उतनी उनकी रात्रि होती है और जब तक उनका दिन रहता है तब तक त्रिलोकी की स्थिति रहती है । और जब उनकी रात्रि होती है, तब त्रिलोकीय नाश होता है, उसे निमित्त प्रलय कहते हैं । जब विराट पुरुष का द्विपरार्ध काल पूरा होता है तब विराट देह का सत्यादि लोक सहित नाश हो जाता है । महदादि चौबीस तत्त्व, प्रधानप्रकृति तथा पुरुष, ये सभी महामाया में विलीन हो जाते हैं । इस स्थिति को प्राकृत प्रलय कहते हैं । महामाया का अक्षरब्रह्म के प्रकाश में विलय हो जाता है । यह विलय दिवस में रात्रि के विलय के समान होता है । उसे आत्यन्तिक प्रलय कहते हैं । देवों, दैत्यों और मनुष्यों आदि की देहों का प्रतिक्षण जो नाश होता है उसे नित्य प्रलय कहते हैं । जिसे इस प्रकार विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का ज्ञान हो जाता है उसे संसार के प्रति वैराग्य हो जाता है और भगवान की भक्ति उत्पन्न हो जाती है । जब समस्त ब्रह्मांड का प्रलय होता है तब सभी जीव तो माया में रहते हैं और भगवद्भक्त भगवान के धाम में जाते हैं ।'
उसी समय मुक्तानंद स्वामी ने पूछा - 'भगवान का धाम कैसा है ?' तब श्रीजी महाराज बोले - 'भगवान का धाम सनातन, नित्य, अप्राकृत, सच्चिदानंद, अनंत तथा अखंड है । उसका दृष्टान्त द्वारा वर्णन करते हैं । पर्वतवृक्षादि सहित तथा मनुष्यों, पशुओं और पक्षियों आदि की आकृतियों से युक्त समस्त पृथ्वी जिस प्रकार शीशे की हो और आकाश में व्याप्त समग्र तारागण सूर्य हों तथा उनके तेज से समस्त आकृतियों सहित शीशे की पृथ्वी जैसी शोभायमान रहे, उसी प्रकार भगवान का धाम दैदीप्यमान रहता है । भगवद् भक्त समाधि में भगवान के इस प्रकार के धाम के दर्शन करते हैं और देह छोडने के पश्चात, भगवान के उस तेजोमय धाम में जाते हैं ।'
इति वचनामृतम् ।। १२ ।।