वचनामृतम् ११

संवत १८६ की मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्दशी को श्रीजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में सभी श्वेत वस्त्र धारण किये विराजमान थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख साधुओं तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।

तत् पश्चात ब्रह्मानंदस्वामी ने पूछा - 'हे महाराज ! वासना का स्वरुप कैसा है ?' तब श्रीजी महाराज बोले - 'पूर्वजन्म में जिन विषयों का उपभोग किया हो, देखा हो और उनके संबंध में सुना हो, उनकी इच्छा यदि अंतः करण में बनी रहे तो उसीको वासना कहा जाता है । तदुपरांत जिन विषयों का उपभोग नहीं कर पाया हो, उसके लिए अंतःकरण में रहनेवाली इच्छा को भी वासना कहते हैं ।'

तब मुक्तानंद स्वामी ने पूछा - 'महाराज ! भगवान का एकान्तिक भक्त किसे कहना चाहिए ?' तब श्रीजी महाराज बोले - 'जिसमें भगवान के सिवा दूसरी कोई भी वासना न हो और जो स्वयं को ब्रह्मस्वरुप समझकर भगवान की भक्ति करता हो, उसे एकान्तिक भक्त कहा जाता है ।'

इति वचनामृतम् ।। ११ ।।