संवत् १८८ के श्रावण की शुक्ल पंचमी के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री गढडा में दादाखाचर के दरबार में पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे । उन्होंने समस्त श्वेत वस्त्र धारण किए थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष परमहंसों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी । परमहंस दुक्कड, सरोद और सितार बजाकर मल्हार राग में कीर्तन कर रहे थे ।
तत्पश्चात् श्रीजी महाराज ने कहा कि - 'कीर्तन गाना बंद करें । अब परमेश्वर की वार्ता करते हैं ।' परमहंसों ने कहा - अच्छा महाराज ! तब श्रीजी महाराज ने प्रश्न किया कि - यदि कोई व्यक्ति शास्त्रों में कहे धर्म का पालन करता हो तथा भगवान की भक्ति करता हो तब यदि उसके सामने ऐसा कोई आपत्काल आ जाये कि भक्ति रखने पर धर्म चला जाय और धर्म रखा जाय तो भक्ति चली जाय, तब किसे रखना चाहिए ?''
ब्रह्मानन्द स्वामी बोले कि - 'यदि भगवान भक्ति रखने से प्रसन्न रहें तो भक्ति रखनी चाहिए और धर्म-पालन से प्रसन्न रहें तो धर्म का पालन करना चाहिए ।'
तत्पश्चात् श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसे प्रकट भगवान मिले हों तो उसे वही करना उचित है । जिससे भगवान प्रसन्न रहें । परन्तु जब भगवान का परोक्षभाव रहे तब क्या करना चाहिए ?'
मुक्तानन्द इस प्रश्न का उत्तर करने लगे । परन्तु उचित उत्तर न दे सके। तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'जब भगवान परोक्ष रुप में हो और आपत्तिकाल आ जाय तो कोई न रहे तब भगवान का अखंड चिन्तन करते रहना चाहिए । ऐसा करने से वह भगवान के मार्ग सेगिरता नहीं है ।
पुनः श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'जो भगवान का माहात्म्य अतिशय रुप से समझता हो और यह मानता हो कि - चाहे जितना पाप किया हो परन्तु भगवान का नामस्मरण किया है तो सभी पाप जलकर भस्म हो जाते हैं । तो उसे किस प्रकार की समझदारी रखनी चाहिए जिससे वह धर्म मार्ग से च्युत न हो सके ?' मुक्तानन्द स्वामी इस प्रश्न का उत्तर देने लगे । परन्तु यथार्थ उत्तर न दे सके ।
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जो भगवान का माहात्म्य अत्यधिक समझता हो उसमें इस प्रकार की समझदारी हो तब वह धर्म का पालन कर सके कि - मुझे तो अखंड भगवान का चिन्तन करके एकान्तिक भक्त होना है । यदि काम, क्रोध लोभादिक विकारों में मेरी वृत्ति जायेगी तो भगवान के चिन्तन में विक्षेप बना रहेगा ऐसा समझकर कुमार्ग से वह अत्यन्त भयभीत रहता है और अधर्म आचरण में कभी भी प्रवृत्त नहीं होता इस प्रकार की समझ रखते हुए यदि वह भगवान के माहात्म्य को बहुत अच्छी तरह समझता रहे तो वह धर्म मार्ग से कभी भी नहीं गिर सकता है । भगवान का अखंड चिन्तन करना कोई साधारण बात नहीं है । यदि कोई भगवान का चिन्तन करते करते शरीर त्याग करता है तो वह अत्यन्त महान पद को प्राप्त करता है ।'
ब्रह्मानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'ऐसा जानते हैं तो भी अखण्ड चिन्तन नहीं हो पाता, इसका क्या कारण है ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'अखंड चिन्तन करने के लिए श्रद्धा होनी चाहिए । यदि ऐसी श्रद्धा न हो तो माहात्म्य जानने में भी उतनी कमी रहती है। यदि माहात्म्य जानने में कमी है तब भगवान के स्वरुप निश्चय में भी उतनी ही कमी रहती है । अतः यदि भगवान के स्वरुप का माहात्म्य तथा श्रद्धा हो तो अखंड चिन्तन होता है । वह माहात्म्य इस प्रकार जानना चाहिए कि - भगवान तो जिस प्रकार प्रकृति पुरुष से पर हैं वैसे ही प्रकृति पुरुष में आये हैं तो भी प्रकाशयुक्त हैं । प्रकृति पुरुष के कार्यरुपी ब्रह्मांड में आये हैं तब भी वे प्रताप युक्त हैं । भगवान की मूर्ति का स्पर्श माया लेशमात्र भी नहीं कर सकाती । जैसे अन्य धातुओं के साथ सोने को इकट्वा करके पृथ्वी में गाड दिया जाय तो लम्बे समय तक पृथ्वी में अन्य वस्तु मिट्टी के साथ मिट्टी हो जाएगी लेकिन सोना तो पृथ्वी में जितने अधिक समय तक रहेगा उतना बढता जाएगा लेकिन घटेगा नहीं । वैसे ही भगवान तथा अन्य ब्रह्मादिक देव एवं मुनि एक समान नहीं है, क्योंकि जब विषयरुपी मिट्टी का योग होता है तब भगवान के सिवा अन्य देवादिक भले हीकितने बडे क्यों न हों वे विषय में एकरस हो जाते हैं । किन्तु भगवान मनुष्य जैसे प्रतीत होते हैं परन्तु उनके समक्ष कोई भी मायिक पदार्थ बाधा डालने में समर्थ नहीं होती है । वे किसी भी प्रकार के विषयों में लिप्त नहीं होते ।' इस तरह से भगवान का माहात्म्य समझे तो भक्त को भगवान का अखंड चिन्तन होता है । जब तक विषयों में आसक्ति बनी रहती है तब तक यह मानना चाहिए कि वह भगवान की अलौकिक महिमा को समझ ही नहीं सका है । उद्धवजी से भगवान ने कहा था कि - 'हे उद्धव ! तुम मुझसे अणुमात्र भी न्यून नहीं हो ।' क्यों ? क्योंकि उद्धवजी ने भगवान का अलौकिक माहात्म्य समझ लिया था । वे पंचविषयों के प्रति आकर्षित नहीं होते थे । जिसे भगवान की महिमा समझ में आ जाती है उसे यदि राज्य हो या दीनता से भिक्षा माँगनी हो तब भी वह दोनों परिस्थितियों में समभाव रखता है । संसार में अच्छे बुरे पदार्थो में भी समता का भाव रखता है । वह अच्छे पदार्थो को देखकर परवानों की तरह आकृष्ट नहीं हो जाता । वह भगवान के सिवा अन्य किसी पदार्थ में आसक्त नहीं होता । वह केवल एकमात्र भगवान की मूर्ति में ही तन्मय रहता है । इस प्रकार का जिसका व्यवहार होता है वह किसी भी बडे विषयों में आसक्त नहीं होता । यदि इस मर्म को नहीं समझा है तो फटी लंगोटी और तुंबडी में से भी मन को हटाना मुश्किल होता है । अतः इस प्रकार भगवान की मूर्ति का माहात्म्य जाने बिना ही यदि वह कोटिशः प्रयत्न करे तो भी भगवान की मूर्ति का अखंड चिन्तन नहीं होता और यदि भक्त भगवान के स्वरुप की महिमा की समझ ले, तब उसे भगवान का अखंड चिन्तन होने लगता है ।'
इति वचनामृतम् ।।४।। ।। १३७ ।।