संवत् १८८ के श्रावण महीने की शुक्ल चतुर्थी के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री गढडा में स्थित दादाखाचर के दरबार में श्री वासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे गादी पर विराजमान थे । उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष परमहंसों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा हो रही थी । उस समय परमहंस उनके सामने झांझ और मृदंग लेकर कीर्तन कर रहे थे ।
तत्पश्चात् श्रीजी महाराज ने अपने नेत्र-कमलों के संकेत से सबको चुप कर दिया और बोले कि - 'जो बडे परमहंस हैं वे आगे आयें मुझे बात करनी है ।' ऐसा कहकर श्रीजी महाराज बोले कि - 'जो भगवान की भक्ति करते हों उन्हें बडी पदवी प्राप्त करने के दो उपाय हैं और पतन के भी दो उपाय हैं । उन्हें कहते हैं । प्रथम तो यह है कि रसिक मार्ग द्वारा भगवान की भक्ति करनी तथा दूसरा आत्मज्ञान का उपाय है । ये दोनों मार्ग महत्ता प्राप्त करने तथा पतन के कारण होते हैं । रसिक मार्ग में तो लाखों हजारों लोग गिर चुके हैं और इनमें से कोई मुश्किल से ही भगवान को प्राप्त सका होगा । बडे-बडे आचार्यो ने भी रसिक मार्ग द्वारा भक्ति करायी है उससे बहुत से लोगों का अहित हुआ है और भलाई तो किसी की ही हुई होगी । क्योंकि जब रसिकतापूर्वक भगवान के स्वरुप का वर्णन करते हैं तब भगवान के साथ-साथ राधिकाजी, लक्ष्मीजी तथा उनकी सखियों के सौन्दर्य का वर्णन आता है तब उनके अंग-अंग का भी वर्णन आता है । तब वर्णन करनेवाले का मन निर्विकार कैसे रह सकता है ? इन्द्रियों का तो यही स्वभाव है कि वह अच्छे विषय की और आकृष्ट हो जाती हैं । राधिकाजी तथा लक्ष्मीजी जैसा रुप तीनों लोको में किसी स्त्री का नहीं होता है । उनके जैसी किसी की मीठी वाणी भी नहीं होती है और उनके शरीर की सुगन्ध भी अत्यन्त होती है । तब ऐसे लावण्य को देखकर और उसके सम्बन्ध में सुनकर क्यों न मोह हो ? वह तो अवश्य होता है । यदि लेशमात्र विकार उत्पन्न हो गया तो कल्याण मार्ग से व्यक्ति का पतन हो जाता है । यदि कोई रसिक - भावना से भगवान की उपासना करता है तब उसके लिए यह अत्यन्त विघ्नकारी रास्ता होता है ।
ब्रह्मज्ञान के विषय में तो विपरीत लगता है कि - 'जो ब्रह्म है वही प्रकृति पुरुष रुप में होता है । बाद में वही ब्रह्म ब्रह्मा, विष्णु और शिव रुप हो जाता है । बाद में वही ब्रह्म स्थावर जंगम का रुप धारण कर लेता है और स्थावर जंगम के आकार में रहनेवाले जीवों के रुप में ब्रह्म होता है ।' इस प्रकार ब्रह्मज्ञान को उल्टा समझकर बाद में समझनेवाला पुरुष अपने जीव को भी भगवान समझने लगता है । तब उनकी उपासना भंग हो जाती है । अतः वह भी भगवान के मार्ग से भटक जाता है । इस तरह से ब्रह्मज्ञान में भी उपासना खंडित हो जाती है । यह महान विघ्न है । क्योंकि ऐसा समझने के बाद भी समस्त जीवों के स्वामी भगवान का ही खंडन हो जाता है । अतः यह समझना चाहिए कि ऐसी समझवाला भी कल्याण मार्ग से गिर जाता है । ये दोनों मार्ग कल्याणकारी हैं । परन्तु इन दोनों मार्गो में बहुत बडे विघ्न भी आते हैं । ऐसी स्थिति में कल्याण की इच्छा वाले व्यक्ति को क्या करना चाहिए, यह प्रश्न है । इसका उत्तर करें?'
समस्त परमहंस विचार करने लगे । किन्तु किसी से उत्तर नहीं हो पाया। तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'इसका उत्तर तो यह है कि जैसे अपनी माता, बहन या पुत्री के अत्यन्त स्वरुपवान होने पर भी उन्हें देखकर उनके साथ बातचीत करके, उनका स्पर्श करने पर भी मन में लेशमात्र भी विकार नहीं उत्पन्न होता वैसे ही भगवान की भक्ति में जो स्त्रियाँ हों उनमें माँ, बहन या पुत्री की भावना रखने पर किसी प्रकार का विकार नहीं उत्पन्न हो सकता और रसिक मार्ग द्वारा भगवान का भजन करने से अभयपद की प्राप्ति होती है । यदि कोई ऐसा नहीं समझता है और ५गवान की महान भक्त स्त्रियों को देखकर उन्हें जब विकार दृष्टि से देखने लगता है तब उसे भारी दोष लग जाता है । अन्य स्त्रियों को देखने सेजो दोष लगता है वह भगवान के भक्त का दर्शन करने से टल जाता है परन्तु भगवान के भक्त का विकार दृष्टि से देखने से जो दोष लगता है उसे टालने का उपाय शास्त्रों में नहीं कहा गया है । इसी तरह से भगवान के भक्त पुरुष को देखकर यदि कोई स्त्री गलत भावना रखती है तो वह भी उस पाप से कभी भी मुक्त नहीं हो पाती है । इस संदर्भ में श्लोक है -
''अन्य क्षेत्रे कृतं पापं तीर्थक्षेत्रे विनश्यति ।
तीर्थक्षेत्रे कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति ।।''
इस श्लोक का अर्थ यह है कि - 'अन्य स्थान में किया हुआ पाप भगवान या भगवान के भक्त के पास जाने से मिट जाता है । किन्तु भगवान या उनके भक्त के पास जाकर किया गया पाप, तीर्थक्षेत्र में किया गया पाप माना जाता है । इसलिए वह वज्रलेप हो जाता है ।' जिस रसिक मार्ग द्वारा भगवान की भक्ति करनी हो उसे तो हमारी बताई हुई बात के अनुसार निर्दोष बुद्धि रखनी चाहिए ।
ब्रह्मज्ञान के मार्ग में यह समझना चाहिए कि - 'जो ब्रह्म हैं वह निर्विकार तथा निरंश हैं । अतः वह विकार को नहीं प्राप्त होता और उसका अंश भी नहीं अलग हो सकता । इस तरह से ब्रह्म को जो सर्वस्व बताया गया है । वह तो इस प्रकार है कि - 'यह ब्रह्म प्रकृति पुरुष आदि सबका कारण और आधार है और अर्न्तयामी शक्ति द्वारा व्यापक है । अतः जो कारण आधार और व्यापक हो वह कार्य से पृथक हो ही नहीं सकता । ऐसी समझ से शास्त्रों में ब्रह्म को सर्वरुप बताया गया है ।' परन्तु ऐसा नहीं समझना चाहिए कि वह ब्रह्म ही विकार को प्राप्त करके चराचर जीवरुप हो गया है । इस ब्रह्म से परब्रह्म रुपी जो पुरुषोत्तम नारायण है वह भिन्न हैं और उस ब्रह्म के भी कारण, आधार तथा प्रेरक हैं । इस प्रकार से समझकर उस ब्रह्म के साथ अपनी जीवात्मा का तादात्म्य स्थापित करके पर ब्रह्म की स्वामी सेवक की भावना से उपासना करनी चाहिए ।' इस प्रकार से समझे वही ब्रह्म ज्ञान है । यह भी परमपद प्राप्त करने का निर्विघ्न मार्ग है ।'
इति वचनामृतम् ।।३।। ।। १३६ ।।