संवत् १८८ को श्रावण की शुक्ल सप्तमी के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री गढडा में दादाखाचर के दरबार में श्री वासुदेवनारायण के मंदिर के सामने बरामदे में गद्दी डलवाकर विराजमान थे । उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किये थे तथा उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनियों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी । मुनि ताल-मृदंग लेकर गायन कर रहे थे ।
तत्पश्चात् श्रीजी महाराज ने नेत्रकमल के इशारे से कीर्तन बंद करवा कर कहा कि - 'सब लोग सुनें । एक बात करते हैं - कि जो भगवान के भक्त हों उन्हें एकपतिव्रता धर्म का पालन करना चाहिए और दूसरा शूरवीर की भावना रखनी चाहिए । जिस प्रकार से पतिव्रता स्त्री अपने वृद्ध पति, रोगी, निर्धन तथा कुरुप हो तब भी उसका मन किसी अन्य पुरुष के गुण को देखकर चलायमान नहीं होता है और यदि गरीब की स्त्री पतिव्रता है तो वह किसी बडे राजा को देखकर भी उस पतिव्रता का मन चलायमान नहीं होता है । उसी तरह से भगवान के भक्त को भी भगवान के प्रति पतिव्रता का धर्म रखना चाहिए । पतिव्रता स्त्री को अपने पति के सम्बन्ध में कहे निन्दा वचनों को कायर की तरह नहीं सुन लेना चाहिए । उसका शूरवीरता पूर्वक जवाब देना चाहिए । इसी प्रकार से भगवान के भक्त को भी निन्दावचन सुनकर उसका विरोध शूरवीरता के साथ करना चाहिए। संसार में लोग कहते हैं कि - साधु को समदृष्टि रखनी चाहिए । परन्तु यह शास्त्र का मत नहीं है । क्योंकि नारदसनकादिक तथा ध्रुव एवं प्रहलाद आदि ने भी भगवान तथा उनके भक्तों के पक्ष का समर्थन किया है । परन्तु विमुखों का किसी ने समर्थन नहीं किया है । जो विपक्षियों का पक्ष लेगा वह इस जन्म में या दूसरे जन्म में अवश्य विमुख होगा ।
अतः भगवान के भक्तों को निश्चय ही भगवान के भक्तों के पक्ष का ही समर्थन करना चाहिए और विमुखों के पक्ष का त्याग करना चाहिए । मेरी यह बात सभी को दृढतापूर्वक रखनी चाहिए ।
इति वचनामृतम् ।।५।। ।। १३८ ।।