संवत् १८८२ के पौष शुक्ल एकादशी के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री वरताल स्थित श्री लक्ष्मीनारायण के दरबार में नीमवृक्ष के नीचे चौकी पर गदृी तकिया रखवाकर विराजमान थे । उन्होंने अंग पर समस्त श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनिमंडल तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
उस समय गॉंव भादरण के पाटीदार भगुभाई आये । उन्होंने श्रीजी महाराज से प्रश्न पूछा कि - 'हे महाराज ! जीव का कल्याण कैसे हो सकता है ?'
श्रीजी महाराजने कहा कि - 'इस पृथ्वी पर राजा के रूप में और साधु के रूप में भगवान के दो प्रकार के अवतार होते हैं । जब वे राजा के रूप में पृथ्वी पर प्रकट होते हैं तब तो उन्तालीस लक्षणों से युक्त होते हैं और जब साधु रूप में प्रकट होते हैं तब वे तीस प्रकार के लक्षणों के युक्त होते हैं, राजा रूपमें चौंसठ प्रकार की कलाओं से युक्त होते हैं तथा साम, दाम, दण्ड और भेद इन चारों उपायों से युक्त होते हैं तथा श्रृंगार आदि नव रसों से भी युक्त होते हैं । वे भगवान जब साधु रूप मं रहते हैं तब उनमें यह लक्षण नहीं होते । यदि भगवान राजा के रूप में हों तो आपत्काल आने पर वह शिकार करके भी जीते हैं और चोर की गर्दन भी काट डालते हैं और घर में स्त्रियॉं भी रखते हैं । साधु के रूप में होते हैं तब वे अतिशय अहिंसा का आचरण करते हैं । वे हरे तृण को भी नहीं तोडते और काष्ट और चित्रांकित स्त्री का भी स्पर्श नहीं करते । अतः साधुरूप में और राजा के रूप में भगवान की मूर्ति दोनों की रीति एक समान नहीं होती । श्रीमद् भागवत के प्रथम स्कन्ध में पृथ्वी तथा धर्म के संवाद में भगवान के राजारूप श्रीकृष्णादि अवतारों के उन्तालीस लक्षण कहे गये हैं । एकादश स्कन्ध में श्रीकृष्ण भगवान तथा उद्धव के संवाद में भगवान के साधुरूप दत्तात्रेय एवं कपिल आदि अवतारों के तीस लक्षण कहे गये हैं । जिसे अपने कल्याण की इच्छा हो उसे उन-उन लक्षणों द्वारा उन भगवान को पहचानकर उस भगवान के शरण में जाना चाहिये तथा उनका दृढ विश्वास रखना चाहिये । उनकी आज्ञा में रहकर उनकी भक्ति करनी चाहिये यही कल्याण का उपाय है । भगवान जब पृथ्वी पर प्रत्यक्ष न हों तब भगवान से मिले हुये साधु का आश्रय करना चाहिये तो उससे भी जीव का कल्याण होता है । जब ऐसे साधु भी न हों तब भगवान की प्रतिमा में दृढ प्रीति रखनी चाहिये तथा स्वधर्म में रहकर भक्ति करनी चाहिये । उससे भी जीव का कल्याण होता है ।'
इति वचनामृतम् ।। १० ।। ।। २१०।।