वचनामृतम् ५

संवत् १८८२ में मार्गशीर्ष कृष्ण चतुर्थी के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री वरताल स्थित श्री लक्ष्मीनारायण के मन्दिर के आगे उत्तर दिशा की ओर गोमती के किनारे आम्रवृक्ष के नीचे की वेदी पर बिछे हुए पलंग पर उत्तराभिमुख होकर बैठे थे । वे अत्यन्त सूक्ष्म श्वेत वस्त्र धारण किए थे । कंठ में गुलाब के अनेक पुष्पों के हार पहने थे । कानों के ऊपर बडे-बडे दो गुलाब के पुष्पों के गुच्छे धारण किये हुये थे और पाग में गुलाब के फूलों के तुर्रे लगे हुए थे । देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
          
श्रीजी महाराज बोले कि - 'टेढे-मेढे प्रश्न पूछिये जिससे सबका आलस्य समाप्त हो जाय ।' ऐसा कह कर स्वयं पश्चिम की ओर करवट बदली । मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि -
''दैवी ह्येषा गुणमयी, मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ।।''
          
इस श्लोक में श्रीकृष्ण भगवान ने ऐसा कहा कि - 'जो पुरुष मुझे प्राप्त करता है वह कष्ट सहन भी न तरने योग्य मेरी गुणमयी माया को तर लेता है ।' तब जिसे भगवान की प्राप्ति हो गयी है उसे भगवान का भजन करते हुए संकल्प विकल्प का जो विक्षेप होता है उसे माया के बिना अन्य कौन करता होगा ? यह प्रश्न है ।'
          
तब श्रीजी महाराज लेटे हुए थे वे उठकर बैठ गये और अत्यन्त करुण होकर बोले कि - 'माया के जो तीन गुण हैं उनमें तमोगुण को तो पंचभूत और पंचमात्रा हैं और रजोगुण की दस इन्द्रियां, बुद्धि तथा प्राण हैं । सत्वगुण के मन, इन्द्रियां और अन्तःकरण के देवता हैं । जो-जो भक्त हो गये हैं उन सबमें इन तीनों गुणों के कार्यरुप भूत इन्द्रियां, अन्तःकरण तथा देवता रहे हैं । इसलिए इसका यह उत्तर है कि जिसने परमेश्वर को यथार्थ रुप से परमेश्वर जान लिया है कि - 'इन भगवान के स्वरुप में किसी भी प्रकार का मायिक भाव नहीं है तथा ये भगवान तो माया और माया के कार्यभूत तीनों गुणों सेपरे हैं । ऐसा जिसे दृढ निश्चय हो चुका है उसनेमाया को पार कर लिया है । उस भक्त में तो माया के गुणकार्यरुपी, भूत, इन्द्रियां अन्तःकरण एवं देवता अपनी अपनी क्रियाओं में प्रवृत्त रहते हैं । फिर भी वह माया को पार कर चुका है ।'
          
क्योंकि वह उसमें माया का कार्य विद्यमान रहता है परन्तु अपने भजन करने योग्य प्रकट प्रमाण श्री वासुदेव भगवान को तो इस माया के गुणों से परे समझता है । अतः उसे भी माया से परे जानना चाहिये । ब्रह्मादि देवों तथा वसिष्ठ, पराशर, विश्वामित्र ऋषियों में इन तीनों गुणों का प्रवेश देखने को मिलता है ऐसा शास्त्र में भी लिखा है । अतः क्या वे मुक्त नहीं कहलाते ? या माया को पार नहीं किया है ? वे सब मुक्त हैं और माया को पार कर लिया है इस प्रकार से उत्तर न करें तो इस प्रश्न का कोई समाधान नहीं हो सकेगा । अतः इसका यही उत्तर है ।'
          
नित्यानन्द स्वामीने पूछा कि - 'हे महाराज ! यह बात ठीक है कि भगवान के आश्रय में जाना चाहिये । उस आश्रय का क्या रूप है ?' श्रीजी महाराज बोले कि भगवान ने गीता में कहा है कि -

सर्वधर्म परित्यक्त मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वां सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि माशुचः ।।
         
इस श्लोक में ऐसा कहा गया है कि - 'अन्य समस्त धर्मो का परित्याग करके एकमात्र मेरी शरण में आ जा, तो मैं तुझको समस्त पापों से मुक्त कर र्दूंगा, तू शोक मत कर ।' ऐसा जिसे भगवान का दृढ आश्रय हो गया हो उसको यदि महाप्रलय जैसे दुःख का सामना करना पडे तो भी उदे यह मानना चाहिये कि कोई अन्य नहीं बल्कि एकमात्र भगवान ही इस दुःख से उसकी रक्षा कर सकते हैं । उसे जिस-जिस सुख की इच्छा हो उसके लिये भगवान से ही करनी चाहिये । परन्तु भगवान के बिना अन्य को सुखदायक नहीं जानता और प्रभु की जैसी इच्छा हो उसी के अनुसार आचरण करें । ऐसा जो होता है वह प्रभु का शरणागत जीव कहा जाता है, और वही भगवान का अनन्य भक्त कहलाता है ।'
          
नाज भक्तने पूछा कि - 'जिसे भगवान का परिपूर्ण आश्रय न हो और बोलने में निश्चित हरिभक्त हो और उसके जैसा ही निश्चय का बल दिखाता हो तो किस तरह से उसकी जानकारी हो ?'
          
श्रीजी महाराज बोले कि - 'भगवान के भक्त का श्रेष्ठ और कनिष्ठ निश्चय तो साथ में रहने और व्यवहार करने से जैसा होता है वैसा मालूम हो जाता है । जिसे थोडा निश्चय होता है वह दुःखी होकर सत्संग की भीड से अलग चला जाता है और एकान्त में रहकर जैसा बनता है वैसा भजन करता है, परन्तु हरिभक्तों की भीड में नहीं रहता । अतः भगवान का आश्रय भी उत्तम मध्यम और कनिष्ठ तीन प्रकार का होता है तथा उससे भक्त भी तीन प्रकार के होते हैं ।'
          
नित्यानन्द स्वामीने प्रश्न पूछा कि - 'यह कसर मिट जाय तो कनिष्ठ भक्त को उत्तम भक्त का स्थान मिलता है या नहीं ?'
          
श्रीजी महाराज बोजे कि - ''जैसे भगवान की मानसी पूजा की जाती है वैसे ही उत्तम हरिभक्त हों उसकी भी भगवान की प्रसादी से भगवान के साथ में मानसी पूजा करे तथा जैसे भगवान को थाल परोसा जाता है वैसे ही उस उत्तम भक्त को भी थाल परोसकर भोजन कराना चाहिये । जिस प्रकार से भगवान के लिये पांच रूपये खर्च किये जाते हैं, वैसे ही बडे सन्त के लिये भी खर्च करे । इस तरह से जो भगवान तथा उत्तम लक्षणवाले सन्त की प्रेम से एक समान सेवा करता है तो वह कनिष्ठ भक्त होते हुए भी दो जन्मों, चार जन्मों, दस जन्मों और एक सौ जन्मों द्वारा उत्तम होनेवाला हो, तो वह इसी जन्म में उत्तम भक्त हो जाता है । ऐसी भगवान तथा भगवान के भक्त की एक समान सेवा करने का फल हैं ।'

इति वचनामृतम् ।। ५ ।। ।। २०५।।